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________________ थी। शत्रुता के आक्रोश ने शत्रु का बोझ भी हल्का कारण है अज्ञान और इसे छोड़ देने के अनेक कारण कर दिया था। पीठ पर लदे शत्रु ने कहा- हैं। 1 'मुझे खोल दो तो मैं तुम्हारे साथ पैदल 'वत्स, इसे मारना अधर्म के अतिरिक्त कुछ भी चलूंगा।' नहीं। इसे मारने से 'कुछ भी' लाभ नहीं होगा_ 'मैं इतना मूर्ख नहीं हैं कि अब तझे भागने का हानि-ही-हानि है । पर इसे न मारने से धर्म ही अवसर दूं।' कुलपुत्र बोला-'तुझे लेकर चलना धर्म है और लाभ-ही-लाभ हैं।' मेरे लिए कठिन नहीं है । बारह साल की तपस्या 'लाभ-हानि की बात तो व्यापारियों के लिए के बाद तू मुझे मिला है।' है।' कुलपुत्र बोला-'क्षत्रिय हानि सहकर भी अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हैं।' __ शत्रु को घर के आँगन में पटककर कुलपुत्र ने ___तो तू क्षात्र धर्म जानता है !' क्षत्राणी बोलीआवाज लगायी 'रक्षा करना क्षत्रिय का धर्म है, मारना नहीं । फिर शरणागत को मारना तो कायरों का काम है, ___ 'माँ, तेरे पुत्र और मेरे भाई का हत्यारा अब क्षत्रियों का नहीं। शरणागत को रक्षा तो अपने तेरे सामने है। यह खड्ग ले मेरा और अपने पुत्र प्राण देकर भी की जाती है। का बदला ले ले।' ___'पुत्र, इसे मारकर क्या तू अपने दिवंगत भाई ठकरानी कुछ कहती कि बंधन में पड़ा शत्रु को पा सकेगा? कभी नहीं पा सकता । लेकिन इसे गिड़गिड़ाने लगा मुक्त करके तू इसे भाई के रूप में पा सकता है । _ 'मुझे मत मारो । मैं तुम्हारा दास हूँ। जीवन- सबसे बड़ा क्षत्रिय तो वह है जो शत्र को भी मित्र । भर तुम्हारी सेवा करूगा। मैं तुम्हारी शरण में बना ले। शाहूँ। मेरे मरते ही मेरी बूढ़ी माँ रोते-रोते प्राण दे ___'वत्स, मैं जानती हूँ कि पुत्र के मरने पर माँ 4 देगी । मेरे बच्चे अनाथ हो जायेंगे । पत्नी विधवा पर क्या बीतती है। जो मुझ पर बीती है, वही हो जाएगी। छोड़ दो मुझे ।' ___ इसकी माँ पर भी बीते इसकी कल्पना से भी मैं ___ 'शत्र, अग्नि, सर्प और रोग-इन्हें कभी शेष ५ कांपने लगती हूँ। नहीं छोड़ना चाहिए ।' कुलपुत्र ने कहा-'मैं अपने । 'बेटा, तू अपने असली शत्रु को नहीं जानता। भाई का बदला तुझे मार कर ही लंगा। बस, तू मारता है तो पहले उसी को मार। क्रोध ही ता अपने इष्ट का स्मरण कर ले।' तेरा शत्रु है। क्रोध बुद्धि को इतना भ्रष्ट कर देता यह कह कूलपूत्र ने खड्ग ऊपर उठाया तो है कि वह रक्त के दाग को रक्त से धलवाने का उसकी मां चीखने लगी असंभव प्रयास करवाता रहता है। अग्नि से अग्नि 'नहीं ई ईं। इसे मत मार । छोड़ दे इसे ।' कभी बुझ पाई है, जो तू आज बुझाना चाहता है। __'माँ ! क्या तू पागल हो गई है ? क्या तू अब 'लाडले, एक अग्नि तब जली थी, जब इसने ठकुरानी नहीं रही ?' कुलपुत्र ने आश्चर्य से कहा- तेरे भाई को मारा था। दूसरी अग्नि यह जल रही 'बारह वर्ष भटकने के बाद हाथ आये शत्रु को है, जब तू इसे मारने को खड़ा है। फिर इसका पुत्र बचाना चाहती है तू?' तुझे मारेगा। फिर तेरा पुत्र इसके पुत्र को मारेगा। 'तब मैं होश में नहीं थी, जब मैंने तुझे ललकारा पुत्र न भी मारे तो अगले जन्म में यह तुझे मारेगा, था ।' क्षत्राणी ने कहा-'इसे मार देने का एक ही फिर उससे अगले जन्म में तू इसे और जन्म-जन्मां (शेष पृष्ठ ५१२ पर) सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन ५०७ TATA (FOR C . साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Cedeo Jaileducation International F Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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