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________________ चिन्तन सूत्र २. जीवन का अभिशाप-दुर्व्यसन प्रातःकाल का समय था। रुग्ण श्रेष्ठी ने अपनी पत्नी से कहा कि आज रात्रि में मेरा स्वास्थ्य काफी खराब रहा । जरा पुत्र को फोन कर कह दो कि वह आकर मेरे शरीर का परीक्षण करें। क्योंकि मैं स्वयं चलकर उसके हॉस्पीटल नहीं पहुँच सकूगा। पत्नी ने उसी समय फोन किया। फोन मिलते ही डाक्टर कार में बैठकर पिता की सेवा में पहुँच गया। उसने पिता के शरीर को अच्छी तरह से देखा और कहा-पूज्य पिताश्री ! यदि आप पूर्ण स्वस्थ बनना चाहते हैं तो सिगरेट को छोड़ना होगा। धूमपान बन्द करना होगा। जब तक ध्र मपान बन्द न करेंगे आप रोग से मुक्त नहीं हो सकेंगे। पिता ने दीर्घ श्वास लेते हुए कहा-वत्स ! मैंने तुझे पढ़ाने के लिए घर के आभूषण बेच दिये, बंगला बेच दिया। खेती की जमीन भी मैंने गिरवी रख दी। अब तो केवल एक ध्र मपान बचा है वह तो रहने दे। पिता पुत्र का संवाद चल ही रहा था कि मैं अपनी शिष्याओं के साथ सेठ की रुग्णता के समाचार सुनकर मंगलपाठ सुनाने पहुँच गई थी। मैं वार्तालाप को सुनकर चिन्तन करने लगी कि दुर्व्यसन एक धागा है और प्रतिपल-प्रतिक्षण हम उस धागे को सुदृढ़ बनाने का प्रयास करते रहते हैं। एक दिन वह दुर्व्यसन हमारे पर इतना आधिपत्य जमा लेता है कि हम उस व्यसन से मुक्त नहीं हो सकते। मैंने देखा है टायर के अन्दर पड़ा हुआ छोटा सा छिद्र टायर को फोड़ देता है और चलती हुई ट्रक या बस एक क्षण में रुक जाती है । छोटासा व्यसन भी एक दिन जीवन को बरबाद कर देता है। एक दिन व्यक्ति व्यसन को पकड़ता है पर वही व्यसन उस पर हावी हो जाता है। 000 सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ RE Jain Education International FSPrCate&Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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