SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था । सीता उसे फटकारती, कुत्ते की तरह धुत्कारती, तथापि वह गुलाम कुत्ते की तरह दुम हिलाता रहता था। यह नपुंसक मन की शक्ति थी जिसने रावण को भी पराजित कर दिया था इसलिए कवि ने कहा मैं लिंग नपुंसक सकल मरद ने ठेले एहने कोइ न झेले न बाझे बीज बातें समरथ छे नर हो कुन्थुजिन मन किम राजस्थान की एक लोक कथा है कि एक सेठ ने को अपने अधीन किया ! भूत ने कहा कि मैं भूत तुम्हारा जो भी कार्य होगा कर दूंगा पर शर्त यह है कि मुझे सतत् काम बताना होगा जिस दिन तुमने काम नहीं बताया उस दिन मैं तुम्हें निगल जाऊँगा । सेठ बड़ा चतुर था। उसने सोचा कि मेरे पास इतना काम है कि यह भूत करते-करते परेशान हो जायेगा। हजारों बीघा मेरी जमीन है धान्य के ढेर लग जाते हैं तथा अन्य भी कार्य हैं । सेठ ने भूत की शर्त स्वीकार कर ली और कहा जाओ जो मेरी खेती है सबको काट डालो । अनाज का ढेर एक स्थान पर करो और भूसा एक स्थान पर करो । अनाज की बोरियाँ घर में भर दो, कोठार में भर दो । आदेश सुनकर भूत चल पड़ा और कुछ ही क्षणों में कार्य सम्पन्न कर लौट आया। उसने दूसरा कार्य बताया, वह भी उसने कर दिया । उसने पुन: आकर कहा--- बताओ कार्य, नहीं तो मैं तुम्हें खा जाऊँगा । प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न श्रेष्ठी ने भूत से कहा - चौगान में एक खम्भा गाड़ दो और मैं जब तक नया काम न बताऊँ तब तक तुम उस पर चढ़ते और उतरते रहो । भूत श्र ेष्ठी की बात सुनकर सोचने लगा कि यह बड़ा चालाक और बुद्धिमान है । मेरे चंगुल में कभी भी फैंस नहीं सकता। वह श्रेष्ठी के चरणों में गिर पड़ा। भारत के उन तत्वदर्शी मनीषियों ने इस लोक कथा के माध्यम से इस सत्य को उजागर किया है कि मन भी भूत के सदृश है । खाली मन सप्तम खण्ड : विचार मन्थन Jain Education International शैतान का घर होता है । मन को कभी भी खाली न रखो । मन बालक के सदृश है । बालक के हाथ यदि शस्त्र है तो वह स्वयं का भी नुकसान करेगा और दूसरे का भी । यदि बालक के हाथ से शस्त्र छीनकर ले लिया जायेगा तो वह रोयेगा चिल्लायेगा । समझदार व्यक्ति बालक के हाथ में चमचमाता हुआ खिलोना देता है और उसके पास से शस्त्र ले लेता है | वैसे ही मन रूपी बालक के हाथ में विषय-वासना, राग-द्वेष के शस्त्र हैं, विकथा का शस्त्र है तो उसके स्थान पर उसे स्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन का यदि खिलौना पकड़ा दिया गया तो वह अशुभ से हटकर शुभ और शुद्ध में विचरण करेगा । जो मन मारक था वह तारक बन जायेगा । जैन साहित्य में एक बहुत ही प्रसिद्ध कथा है । प्रसन्नचन्द्र नामक राजर्षि एकान्त शान्त स्थान में ध्यान मुद्रा में अवस्थित थे । उस समय सम्राट श्रेणिक सवारी सजाकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए जा रहा था । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को ध्यान मुद्रा को देखकर उसका हृदय श्रद्धा से अभिभूत हो गया । सम्राट नमस्कार कर समवशरण की ओर आगे बढ़ गया। कुछ राहगीर परस्पर वार्तालाप करने लगे कि प्रसन्नचन्द्र तो साधु बन गये हैं पर इनके नगर पर शत्रुओं ने आक्रमण कर दिया है और वे नगर को लूटने के लिए तत्पर है । ये शब्द ज्योंही राजर्षि के कर्ण -कुहरों में गिरे, उनका चिन्तन धर्म ध्यान से हटकर आर्त्त और रौद्र ध्यान में चला गया और वे चिन्तन करने लगे कि मैं शत्रुओं को परास्त कर दूंगा । मेरे सामने शत्रु एक क्षण भी टिक नहीं सकेंगे । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने मन में युद्ध की कल्पना प्रारम्भ की । शत्रु सेना दनादन मर रही है । स्वयं युद्ध के लिए सन्नद्ध हो चुके हैं । मन में संकल्प है सभी शत्रुओं को समाप्त करके ही मैं संसार को बता दूंगा कि मैं कितना वीर हूँ । सम्राट श्रेणिक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन कर पूछा भगवन् ! मैं श्री चरणों में आ रहा साध्वीरत्न ग्रन्थ Private & Personal Use Only ४६१ www.jainehorary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy