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________________ मर्यादा को विस्मृत हो चुके हैं फिर दूसरे सन्तों का आचार्यदेव को अनास्था का कारण ज्ञात हो तो कहना ही क्या ? आगे बढ़ते हुए कदम एक क्षण गया और उन्होंने कहा कि यहाँ के प्रमुख विवेकमें रुक गये और सभी श्रद्धालुगण नगर की ओर शील श्रद्धालुओं को तुम संदेश दो कि आचार्य प्रवर लोट पड़े । तुम्हें बुला रहे हैं। सन्देश सुनते ही श्रद्धालुगण है धीरे-धीरे रास्ते को पार करते हुए आचार्य उपस्थित हुए । आचार्यप्रवर ने कहा-जिस व्यक्ति नगर में पहुँचे । पर चारों ओर अनास्था का वाता ने यह बात कही कि हम तालाब में पानी पी रहे वरण था। न स्वागत था, न सन्मान था। पूछते- थे आप उस व्यक्ति को जरा बुलायें । सनते ही कुछ पाछत आचार्य प्रवर धर्मस्थानक में पहुँचे । आचार्य तमाशबीन यह सोचकर कि अब बड़ा मजा आयेगा का प्रवर सोचने लगे कि इस नगर के श्रद्धालओं की उसे पकड़कर बाजार से ले आये। भक्ति के सम्बन्ध में मैंने बहत कछ सन रखा है पर आचार्यप्रवर ने उस राहगीर से पूछा-तम JA आज तो बिल्कुल विपरीत ही दिखाई दे रहा है। उधर से आ रहे थे और हम लोग तालाब की पाल 71 श्रद्धालुओं की श्रद्धा क्यों डगमगा गई है ? इनका पर बैठे हुए थे, बताओ तालाब में पानी था या आचरण ही इस बात का साक्षी है कि इनके मन में नहीं ? उस राहगीर ने कहा-उस तालाब में तो एक कहीं भ्रम का भूत पैठ गया है और जब तक वह बूद भी पानी नहीं था। फिर हम पानी कहाँ से पी नहीं निकलेगा तब तक उनका अन्तनिस ज्योति- रहे थे? उस राहगीर किसान ने कहा-तुम्हारे पास ।। र्मय नहीं बनेगा। जो लकड़ी के पात्र रहते हैं। उसमें जो पानी था । ____ आचार्य प्रवर ने एक भद्र श्रावक को अपने वह पानी तुम पी रहे थे। पास बुलाया और स्नेहसुधा स्निग्ध शब्दों में उससे । आचार्य देव ने श्रोताओं को कहा-बताओ, इसमें हमने किस दोष का सेवन किया। हम जिस पूछा कि बताओ हमने तुम्हारे नगर की बहुत , गाँव से आये थे, वहाँ से अचित्त पानी साथ लाये प्रशंसा सुनी थी । यहाँ की भक्ति सुनकर ही हम यहाँ पर विविध कष्ट सहन कर आये हैं पर आज थे । क्षेत्र मर्यादा समाप्त हो गयी थी, इसलिए हमने वहाँ पर पानी का उपयोग कर लिया था। सभी न तो एक श्रावक दिखाई दे रहा है और न एक श्रोताओं को अपनी भूल ज्ञात हुई कि हमने बिना श्राविका ही । क्या बात है ? निर्णय के ही आचार्यदेव पर और संतों पर लांछन उस भोले श्रावक ने बताया कि हम, हमारे लगाया। सभी ने उठकर नमस्कार कर अपने अपसंघ के सभी प्रमुख श्रावक और श्राविकाएं आपको राध की क्षमायाचना की । इस प्रकार कई बार लिवाने हेतु मोलों तक पहुँचे। बहुत ही उल्लास भ्रम से भी अनास्था पैदा हो जाती है । पर सम्यऔर उत्साहमय वातावरण था । सभी अपने आपको दृष्टि साधक भ्रम के जाल में उलझता नहीं। वह १ धन्य अनुभव कर रहे थे। सामने से राहगीर ने सत्य तथ्य को समझता है । वह जानता है कि शंका हमारी जिज्ञासा पर बताया था कि आप तालाब कुशंकाओं से सम्यक्त्व का नाश होता है । सम्यक्त्व C पर पानी पी रहे हैं इसलिए हमारे सभी के मन का आलोक धुंधला होता है। चाहे देव के सम्बन्ध अनास्था से भर गये । जैन सन्त कच्चे पानी को में हो, चाहे गुरु के सम्बन्ध में हो और चाहे स्पर्श भी नहीं करता पर आप तो अपने शिष्यों के धर्म के सम्बन्ध में हो, वह पूर्ण रूप से आस्थावान साथ तालाब पर पानी पी रहे थे। हमारा अनमोल बनता है। सिर ऐरे-गैरे के चरणों में झुकने के लिए नहीं है। सम्यक्त्व के पांच दूषण है। शंका, काँक्षा, इसीलिए हम सब लौट आये । विचिकित्सा, परपाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड VAAN ४८० सप्तम खण्ड : विचार-मन्थन हा साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ISRO Jain Eden International A P ate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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