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________________ जैनधर्म में सती प्रथा के विकसित नहीं होने के कारण जैनधर्म में सतीप्रथा के विकसित नहीं होने का सबसे प्रमुख कारण जैनधर्म में भिक्षुणी संघ का अस्तित्व ही है । वस्तुतः पति की मृत्यु के पश्चात् किसी स्त्री के सती होने का प्रमुख मनोवैज्ञानिक कारण असुरक्षा एवं असम्मान की भावना है । जैनधर्म में पति की मृत्यु के पश्चात् स्त्री को अधिकार है कि वह सन्तान की समुचित व्यवस्था करके भिक्षुणी बनकर संघ में प्रवेश ले ले और इस प्रकार अपनी असुरक्षा की भावना को समाप्त कर दे । इसके साथ ही सामान्यतया एक विधवा हिन्दू समाज से तिरस्कृत समझी जाती थी, अतः उस तिरस्कारपूर्ण जीवन जीने की आशंका से वह पति के साथ मृत्यु का वरण करना ही उचित मानती है । जैनधर्म में कोई भी स्त्री जब भिक्षुणी बन जाती है तो वह समाज आदरणीय बन जाती है । इस प्रकार जैनधर्म भिक्षुणी संघ की व्यवस्था करके स्त्री को पति की मृत्यु के पश्चात् भी सम्मानपूर्वक जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त कर देता है । स्त्री द्वारा पति की मृत्यु के पश्चात् सम्पत्ति में अधिकार न होने से आर्थिक नारी की एक प्रमुख समस्या है जिससे बचने के लिए स्त्री सती होना पसन्द करती है । जैन नारी सम्मानजनक रूप से भिक्षा प्राप्त करके आर्थिक संकट से भी बच जाती थी, हिन्दूधर्म के विरुद्ध सम्पत्ति पर स्त्री के अधिकार को का उल्लेख मिलता है, जो पति के स्वर्गवास के अतः यह स्वाभाविक था कि जैनस्त्रियाँ वैधव्य के ही । यही कारण थे कि जैनधर्म में सती प्रथा को विकसित होने के अवसर हो नहीं मिले । यद्यपि प्रो० काणे' ने अपने धर्मशास्त्र के इतिहास में सती प्रथा के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह बताया है कि बंगाल में मेघातिथि स्त्री को पति की सम्पत्ति का अधिकार मिलने के कारण ही सतीप्रथा का विकास हुआ, किन्तु यदि यह सत्य माना जाये तो फिर जैनधर्म में भी सतीप्रथा का विकास होना था किन्तु जैनधर्म में ऐसा नहीं हुआ । स्त्री को सम्पत्ति का अधिकार मिलने की स्थिति में हिन्दू धर्म में स्त्री स्वयं सती होना नहीं चाहती थी अपितु सम्पत्ति लोभ के कारण परिवार के लोगों द्वारा उसे सती होने को विवश किया जाता है किन्तु अहिंसा प्रेमी जैनधर्मानुयायियों की दृष्टि में सम्पत्ति पाने के लिए स्त्री को आत्मबलिदान हेतु विवश करना उचित नहीं था, यह तो स्पष्ट रूप से नारी हत्या थी । अतः सम्पत्ति में विधवा के अधिकार को मान्य करने पर भी अहिंसा प्रेमी जैनसमाज सतीप्रथा जैसे अमानवीय कार्य का समर्थन नहीं कर सका । दूसरे, यह कि यदि वह स्त्री स्वेच्छा से दीक्षित हो जाती थी तो भी उन्हें सम्पत्ति का स्वामित्व तो प्राप्त हो ही जाता था । अतः जैनधर्म में सामान्यतया सतीप्रथा का विकास नहीं हुआ अपितु उसमें स्त्री को श्रमणी या साध्वी बनने को ही प्रोत्साहित किया गया । जैनधर्म में पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा के लिए भिक्षुणी संघ का सम्मानजनक द्वार सदैव खुला हुआ था । जहां वह सुरक्षा और सम्मान के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी कर सकती थी । अतः जैनाचार्यों ने विधवा, परित्यक्ता एवं विपदाग्रस्त नारी को भिक्षुणी संघ में प्रवेश हेतु प्रेरित किया, न कि सती होने के लिए । यही कारण था कि जैनधर्म में प्राचीन काल से लेकर आज तक श्रमणियों या भिक्षुणियों की संख्या भिक्षुओं की अपेक्षा बहुत अधिक रही है । यह अनुपात १ : ३ का रहता आया है । " संकट भी हिन्दू श्रमणी जीवन में साथ ही जैनधर्म मान्य करता है । जैनग्रन्थों भद्रा आदि सार्थवाहियों पश्चात् अपने व्यवसाय का संचालन स्वयं करती थीं । कारण न असम्मानित होती थीं और न असुरक्षित १. धर्मशास्त्र का इतिहास, काणे, भाग १ पृ० ३५२ २. कल्पसूत्र, १३४ ४७२ Jain Edu Internationa षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भों में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ www.jainelibrary.g
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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