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________________ कहने ? उसमें मोती हैं और मौत भी। छलांग लगाइये, देखिये, क्या पाते हैं ? सुख का घाट या फिर मौत के भंवर में फँसते-डूबते हैं । यह सवाल समय का मुंह देख रहा है। सोचता है, क्या श्रम के उस सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व की पूर्ण अनुभूति हमें हो सकेगी? - क्या हम इसे छोटी-सी शब्द-आरती से अपनी इतिश्री नहीं समझे हुए हैं ? क्या हम वंचना का वरण " किये हुए नहीं हैं ? दूसरों को ही नहीं अपने को भी धोखा दे रहे हैं। लगता है आपको मेरा प्रश्न उलझा हुआ लग रहा है । लीजिए, मैं उसके खोल को हटा देता हूँ। बहुत पहले किसी ने संन्यासी से पूछा था कि "श्रेष्ठ पिता कौन है ?" संन्यासी ने उत्तर दिया था-"वह पिता श्रेष्ठ है जो अपने पुत्र से पराजय का की कामना करे । जो चाहे कि मेरा पुत्र मुझसे हर बात में श्रेष्ठ हो, आगे हो।" जनाब ! आइये, हम अपने पिता से श्रेष्ठ बनें। हमारा जीवन हमारे परिवार को पहले से ऊँचा उठाने वाला हो, हम अपने यग से आगे बढ़े. हमारा जीवन राष्ट्र को, युग को प्रगति देने वाला हो। हम अपने जीवन का मूल्य । आँकें और हम वही सब कुछ करें जिससे हमारी मुलाकात हमारे अभीष्ट से हो जाये । हमारे भाल पर गिरावट की कालिख न पुत-लिप जाय और हम उठे तथा हमारे साथ दूसरे सभी उठ जायें । सचमुच, हमारा जीवन श्रम और आस्था की रोशनी से जगमगा जायेगा। एक बार चौराहे पर खड़े व्यक्ति ने सोचा कि मैं किस ओर बढ़ ? एक ओर उपदेश हैं तो दूसरी ओर आचरण । तीसरी ओर प्रचार है तो चौथी ओर मौन समाधि । किस राह पर चला जाये? वह निर्णय पर नहीं पहुँच पाया। संयोग से दीपक लिए एक अध्यात्मपुरुष का उधर से गुजरना 78) हआ। उसने व्यक्ति को अंधेरे में भटकते हए देखा तो अपने जलते दीपक से रोशनी दी-"राही! उपदेश ! । में गर्व होता है और आचरण में बलिदान । प्रचार में लोकषणा है और मौन में आत्मोपलब्धि।" कोरे * उपदेश से भला कौन किसे सुधार सकता है ? उसका उपदेश मोह-ममता में जो जकड़ा हुआ है । निःस्वार्थ भाव से प्रदत्त उपदेश में एक सात्विक गौरव है। जनहित में किया गया नैतिक प्रचार लोकेषणा नहीं जीवनैषणा है । जिसको जो रुचे उसी मार्ग पर चल पड़े। बस, मर्यादा की मन्दाकिनी में अवगाहन अवश्य । न करता रहे। व्यक्ति जब व्यक्ति रहता है तब क्रूरता, वध, असहिष्णता आदि की अभिव्यक्ति नहीं होती। , परन्तु जब उसकी इकाई समूह में विलीन हो जाती है, तब दोष उभर आते हैं । जहाँ दो होते हैं, वहीं शत्रुता का भाव उगता-उपजता है और मैत्री की कल्पना भी जन्मती-पनपती है। जहाँ और जब शत्रु भाव का उत्कर्ष होता है, तब जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है । सर्वत्र, व्यक्ति-व्यक्ति में, कुटुम्ब-कुटुम्ब १ में, समाज-समाज में, देश-देश में तथा राष्ट्र-राष्ट्र में अराजकता फैल जाती है और अशान्ति की कुहेलिका 1 मंडराने लगती है । जनजीवन जलता है और उसकी आहों से मिश्रित धूप की उमियों से सारा वाता वरण विषमय बन जाता है । मित्रभाव का जब उत्कर्ष होता है, तब अशान्ति की अन्त्येष्टि हो जाती है । - सर्वत्र, शान्ति का साम्राज्य छा जाता है । वहाँ प्रत्येक व्यक्ति सुख से जीने लगता है और वह दूसरे के र सुख पूर्ण जीवन जीने के अधिकार में कभी हस्तक्षेप नहीं करता है। आज शत्रु भाव चरम सीमा पर है । प्रत्यक्ष-परोक्ष परस्पर में सभी शत्रु हैं। इसे मिटाने के लिए मैत्री का दरवाजा खटखटाना होगा। हमें अभय, अनाक्रमण, विश्वास और सहिष्णुता की चार पहियों वाली गाड़ी में बैठना होगा। कहते हैं अभय का आधार निर्मोह है। मोह की न्यूनता अभय को बढ़ाती है और अभय से मोह की न्यूनता होती है । इस परिधि में मैत्री की लता फल-फूल सकती है। C षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ D साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jairieducation International Yer Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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