SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथा अतिआहार का निषेध किया गया है। यह निर्देश प्रत्येक मुनि की तरह शिक्षार्थी मुनि के लिए भी पालनीय है । ऐसा करके शिक्षार्थी मुनि सादा जीवन जीते हुए अधिक मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने में समर्थ हो सकेगा। शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध (अ) सान्निध्य या निकटता-जैन आचार्य या उपाध्याय के पास अध्ययन करने वाला साधुवर्ग उनके सान्निध्य में ही निवास करता है। शास्त्रों में इसीलिए शिष्य के लिए 'अन्तेवासी' या निकट ८ में रहने वाला शब्द प्रयुक्त हुआ है। गुरु के सान्निध्य में रहकर उनके प्रत्यक्ष व्यवहारों को देखते हुए शिष्य अनेक शिक्षाएँ ग्रहण करता है। सान्निध्य में रहने से गुरु शिष्य को और शिष्य गुरु को भलीभ जानते और समझ लेते हैं। इससे शिक्षण क्रिया में शिष्य और गुरु दोनों को पर्याप्त सहयोग प्राप्त होता है। (ब) सेवा,सहयोग और स्नेहपूर्णता-सूत्र उत्तराध्ययन में साधु-समाचारी के १० भेदों में अभ्युत्थान समाचारी में बताया गया है कि शिष्य (मुनि) अपने आचार्य उपाध्याय रूपी शिक्षक के आने पर खड़ा होकर उनका सम्मान करता है और उनकी सेवा शुश्रूषा के लिए सदैव तत्पर रहता है। छन्दना का समाचारी के अनुसार शैक्ष साधु गुरुजनों का संकेत पाकर बाल, ग्लाम और शैक्ष (अध्ययनरत श्रमण) श्रमणों को आहारादि के लिए आमन्त्रण करता है । यह बाल (छोटे साधु) और रोगी तथा शिक्षार्थी साघुओं के प्रति गुरु के स्नेहभाव का द्योतक है । अभ्युत्थान में गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा एवं सेवा भावना व्यक्त हुई है । यह सभी कार्य उपकार या प्रतिकार की भावना से न करते हुए आत्मशुद्धि की भावना से किया । जाता है। कितनी निरीहता है गुरु-शिष्य के इन सम्बन्धों में जो उल्लेखनीय और अनुकरणीय है। अध्यापक भी वाचना या शिक्षा का कार्य केवल आत्मशुद्धि या कर्म-निर्जरा के हेतु ही करते हैं। (स) विनयपूर्णता-जैन विचारधारा में 'विनय' को शिक्षार्थी का मूलगुण माना गया है। 'विणओ धम्मस्स मूलो' अर्थात् विनय धर्म का मूल है । विद्यार्थी निस्वार्थभाव से गुरुजन का विनय करके वैनयिकी बुद्धि प्राप्त करता है। इस प्रकार की बुद्धि से विनयवान शिष्य कठिनतम प्रसंगों को भी सुलझा लेता है और नीतिधर्म के सार को ग्रहण करता है । इस प्रकार विनयपूर्वक ग्रहण किया हुआ ज्ञान अभीष्ट फल प्रदाता बनता है। भगवान महावीर ने अन्तिम समय में उपदेश देते हुए उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्याय में विनय की ही विवेचना की है। दशवैकालिक सूत्र में भी विनय समाधि का वर्णन उपलब्ध होता है । विनयवान शिष्य आत्मसमाधि या आत्मशांति को प्राप्त करता है। (द) समानता-जैन दर्शन में माना गया है कि सभी जीवों में एक ही चेतना या आत्मतत्त्व विद्यमान है । सूत्र दशवैकालिक में बताया गया कि साधक को प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझकर सभी जीवों के साथ आत्मवत् व्यवहार करना चाहिए। रागद्वेष भाव आत्मा के पतन का कारण बनते हैं। यह जानकर और मानकर आचार्य और उपाध्याय शिक्षक अपने शिक्षार्थी के साथ समान व्यवहार करते हैं । वे दोनों समताभाव से अर्थात् शिष्य को आत्मवत् समझते हुए शिष्यों को वाचना या शिक्षा देते हैं। उनके दोषों पर कभी क्रोध नहीं करते। शिष्य मुनियों के विकास को दृष्टिगत करके वे उन्हें समान भाव से वाचना देते हैं। २. वही, अध्ययन २६ गाथा ५ से ७ १. उत्तराध्ययन ११॥३ ३. नंदीसूत्र गाथा ७३ NAGI षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जेन-परम्परा की परिलब्धियाँ 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International ...PUPNate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy