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________________ उपक्रम आरम्भ किए हैं, जिनसे भूमि की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाने का खतरा है। कीटनाशक दवाएँ उपकारी कीटों को भी नष्ट कर रही हैं और उत्पादित खाद्य वस्तुएँ मनुष्यों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाल रही हैं । कृषि कर्म में जीवाजीव संगम तथा जीवों की अन्योन्याश्रितता को कायम रखना आवश्यक है। आज खनिजों का दोहन अत्यन्त तीव्र गति से हो रहा है, उनका पुनर्स्थापन नहीं हो पा रहा । है । इस गति को संतुलित करना आवश्यक है अन्यथा मनुष्य दरिद्र हो जाएगा। स जीवों का संरक्षण सृष्टि में प्रत्येक जीव सृष्टि संचालन में अपनी महती भूमिका निभाता है। कीट-पतंगे, चूहे, C साँप, छिपकली, सिंह, व्याघ्र, शाकाहारी, मांसाहारी, गगन-चारी, जल-विहारी तथा भूतलगामी सब (ॐ) जीव सृष्टि को संतुलित बनाये हुए हैं । यह दलील बिल्कुल बेतुकी है कि कुछ जीवों की उत्पत्ति इतनी तेजी से होती है कि यदि वे सब जीवित रहने दिए जाएँ तो मनुष्य का जीना मुश्किल हो जायेगा। 3) प्रकृति का कुछ विधान ही ऐसा है कि उनकी उत्पत्ति और ह्रास की परिस्थितियाँ जीव लोक में ही 2 विद्यमान रहती हैं। असंज्ञी जीव जगत में होने वाली हिंसा प्रकृति-प्रदत्त है, मनुष्य उससे असम्पक्त है। का असंज्ञी प्राणि जगत की कोई संस्कृति नहीं होती, उनका कोई समाज नहीं होता और इसी कारण उनकी कोई नैतिकता नहीं होती। मनुष्य का समाज होता है, उसकी संस्कृति होती है और उसमें मनुष्यों के अलावा अन्य आश्रित जीव भी होते हैं अतः उसकी नैतिकता होती है। मानवीय नैतिकता का आधार है अनावश्यक हिंसा का त्याग । हमारे संविधान की धारा ५१ का संशोधन करके मूल अधिकारों के साथ मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया है, जिन्हें धारा ५१ ए का भाग माना गया है। मूल कर्तव्यों में दो कर्तव्य विचारणीय हैं १. सभी जीवधारियों के प्रति दयाभाव रखना, तथा २. नैसर्गिक पर्यावरण में समरसता कायम रखना। उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो जैनों की आचार संहिता अब प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। जैन न्याय संहिता में तो हिंसा से कर्मबन्धन होता है, जिसका दुखद उपभोग अनिवार्यतः । करना पड़ता है परन्तु भारतीय संविधान की न्यायिक व्यवस्था में इन कर्तव्यों का उल्लघन करने पर व्यक्ति के लिए दण्ड की व्यस्था है। पुरस्कार तथा दण्ड भी समाज व्यवस्था को कायम रखने में सहायक होते हैं परन्तु उनका १५ प्रभाव अल्पकालिक होता है । आज हमें स्वयं इस बात का अहसास होना चाहिए कि मानवीय सृष्टि का को बचाने के लिए सभी जीवों को जीने देने का उसी प्रकार अधिकार देना होगा, जिस प्रकार हम स्वयं अपने लिए इस अधिकार को चाहते हैं। हमारे अन्दर किसी को प्राण देने की शक्ति नहीं है तो प्राण हरण करने का अधिकार हम कैसे ले सकते हैं ? आवश्यक सूत्र के इस जीवन मूल्य "मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झ ण केणइ" (अर्थात् मेरी सभी जीवों के साथ मैत्री है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है) को हमारी संस्कृति का मूल मन्त्र बनाना होगा । तभी सृष्टि का सन्तुलन कायम रखने में मनुष्य की सही भूमिका मानी जाएगी। 37 षष्ठम खण्ड : विविध राष्ट्रीय सन्दर्भो में जैन-परम्परा की परिलब्धियाँ ४४७ 40 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 660 Jalleducation Internation Por Private & Personal Use Only www.jaliorary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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