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________________ 0 डॉ० छगनलाल शास्त्री एम. ए. (त्रिधा), पी-एच. डी. प्रोफेसर-मद्रास विश्वविद्यालय आचार्य हरिभद्र के प्राकृत योग ग्रन्थों का मूल्यांकन __ भारतीय वाङमय में प्राकृत का अपना महत्व- प्रयोग की दृष्टि से अवश्य ही कतिपय प्रादेशिक पूर्ण स्थान है। विभिन्न प्राकृतों का यत्किचित् प्रादे- बोलियाँ रही होंगी। शिक भेद के साथ भारोपीय भाषा-परिवार या महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारंभ आर्यभाषा-परिवार के क्षेत्र में भारत के पश्चिमी, में व्याकरण या शब्दानुशासन का लक्ष्य निरूपित पूर्वी, उत्तरी एवं मध्य भाग में जन-जन में लोक करते हुए लिखा हैभाषा के रूप में व्यापक प्रचलन रहा है। "जो शब्दों के प्रयोग में कुशल है, जो शब्दों का समुचित रूप में उपयोग करना जानता है, वह - भाषाशास्त्रियों ने भाषा-परिवारों का विश्लेषण व्यवहार-काल में उनका यथावत् सही-सही उपयोग करते हुए प्राकृतों की मध्यकालीन भारतीय आर्य करता है।" 9197377 (Middle Indo Aryan Languages) Å भाषा के शुद्ध प्रयोग की फलनिष्पत्ति का जिक्र परिगणना की है। उनके अनुसार भारतीय आर्य- करते हए वे कहते हैं-"ऐसा करना न केवल इस भाषाओं के विकास-क्रम के अन्तर्गत प्राकृत का लोक में उसके लिए श्रेयस्कर होता है, वरन् परकाल ई. पू. ५०० से माना जाता है, पर यदि हम लोक में भी यह उसके उत्कर्ष का हेतु है। जो गहराई में जाएं तो यह विकासक्रम का स्थूल निर्धा अशुद्ध शब्दों का प्रयोग करता है, वह दोषभाक् । रण प्रतीत होता है। प्राचीन आर्य भाषाएँ (Early in Indo Aryan Languages) जिनका काल ई० पू० • आगे उन्होंने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है१५०० से ई. पू. ५०० माना जाता है, का प्रारम्भ "एक एक शब्द के अनेक अपभ्रंश-रूप प्रचलित छन्दस् या वैदिक संस्कृत से होता है। ऐसा हैं।" अपभ्रष्ट रूपों में उन्होंने गो के अर्थ में प्रचलित प्रतीत होता है कि यह विवेचन छन्दस् के गावी, गोणी, गोपतलिका का उल्लेख किया है । साहित्यिक रूप को दृष्टिगत रखकर किया इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि महाभाष्यकार गया है । वैदिक संस्कृत जन-साधारण की बोलचाल का संकेत उन बोलियों की ओर है, जो छन्दस्काल. की भाषा रही हो, ऐसा संभावित नहीं लगता। में लोक प्रचलित थीं। बोलचाल की भाषाओं में तब वैदिक संस्कृत के समकक्ष लोगों में दैनन्दिन रूप-वैविध्य का होना सर्वथा स्वाभाविक है । १. महाभाष्य प्रथम आह्निक पृ. ७ । २. महाभाष्य प्रथम आह्निक पृ.८ । ४२४ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International Sate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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