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________________ जो सन्त-महात्मा-गृहस्थ-साधु इन बारह व्रतों उपवास करके सतत् तपस्या आरम्भ करनी चाहिए, को धारण कर नियमपूर्वक उनका पालन करते हैं- पश्चात् एक-एक दिन के अन्तर से उपवास करना वे स्वस्थ एवं चिरायु होते हैं, उनके शरीर का चाहिए और ज्यों-ज्यों शक्ति बढ़ती जाय, त्यों-त्यों Va संस्थान सुन्दर एवं सुडौल हो जाता है, उनके तपस्या में वृद्धि करते जाना चाहिए और अन्त में शारीरिक अवयव सुदृढ हो जाते हैं, वे तेजस्वी और संस्तारक तक पहुँचना चाहिए। यदि नित्य या अति शक्तिशाली होते हैं । भोजन के अपच होने की एक-एक दिन के अन्तर से भी उपवास की शक्ति न ८ शिकायत नहीं होती और न ही खट्टी डकारें आती हो तो प्रतिदिन ऊनोदरी तप करना चाहिए । यानी 8 हैं । रक्त-चाप कम-ज्यादा नहीं होता । नाड़ी-संस्थान, जितना भोजन नित्य किया जाता है, उसको कम आमाशय और हृदय की गति सुचारु रूप से अपना- कर देना चाहिए । वस्त्रादि उपकरणों को भी घटा अपना काम करती हैं। शरीर में रक्त-संचालन देना तथा क्रोधादि कषायों में भी कमी करनी (Blood Circulation) बिना किसी रुकावट होता चाहिए । है जिससे चेहरा प्रसन्नता से खिला रहता है। यही इन्द्रियों-वत्तियों पर कठोर प्रहार करके उन्हें कारण है कि हमारे प्राचीन ऋषि मुनि दीघायु होत ग्लान बना देना तप का देत नहीं है और न इससे का) थे, उन्हें किसी प्रकार की औषधि एवं उपचार की तप सिद्ध होता है। आवश्यकता नहीं पड़ती थी। व्रत-ग्रहण करने से रस रुधिर मांस-भेदोऽस्थिमज्जा आहार में कमी आती है। आयुर्वेद विज्ञान की शुक्राण्यनेन तप्यन्ते । सूक्ति है-स्वल्पाहारी स जीवति-स्वल्प आहार कर्माणि चाशुभानीत्य तस्तपो करने वाला दीर्घ-जीवी होता है। ___ जो मनुष्य हिताहारी हैं, मिताहारी एवं अल्पाहारी हैं उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा कराने की। ___ अर्थात्-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा 13 आवश्यकता नहीं, वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, स्वयं और शुक्र तथा अशुभ कर्म इससे तपित हो जाते हैं, ही स्वयं के चिकित्सक हैं। दस प्रकार के सखों इसलिए इसका नाम तप रखा गया है। शक्ति से में-आरोग्य पहला सुख माना गया है। आरोग्य आ बाहर, दबते हुए या जबर्दस्ती सहन करते हुए उप-10 ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है, सबसे बड़ा लाभ है। , वासादि तपस्या करना बिल्कुल अनिष्टकारक है, | महषि धन्वन्तरि ने स्वास्थ्य की परिभाषा करते इसीलिए कहा ह हुए लिखा है जिसके देह में वात-पित-कफ तीनों सो अ तवो कायव्वो जेण मनोमंगलं न चितेइ। ) दोष, अग्नि, रस, रक्त आदि सातों धातुओं की जेण न इंदिय हाणी जेण जोगा न हायंति ॥ मल क्रिया ये सब सम हैं, तथा जिसकी आत्मा, अर्थात्-जिस तप के करने से मन दुष्ट न हो, मन एवं इन्द्रियाँ प्रसन्न हैं, वह स्वस्थ कहलाता है। इन्द्रियों की हानि न हो, और योग भी नष्ट हो, व्रत से समस्त प्रकार के विकार दूर होते हैं। वही तप करना चाहिए । इस प्रकार शान्ति समाधि ___ शारीरिक वर्चस्व/बौद्धिक प्रतिभा/स्मरण शक्ति पूर्वक तप करना और उसमें आगे बढ़ने के लिए। (ज्ञान तन्तु) का विकास होकर जीवन में उत्कृष्ट धीरे-धीरे कदम बढ़ाना चाहिए। पहले कई दिनों सफलता मिलती है। में उपवास करना चाहिए। फिर एक-एक दिन के ____ उपवास-तप के इच्छुक को पहले कभी-कभी अन्तर से करना चाहिए और बाद में एक साथ दो, नाम नरुक्तम् ॥ १-२. वही पृष्ठ २२६-२२७ । ४२२ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International - Yor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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