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________________ 'भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।" 1 अर्थात् - -भव बीज को अंकुरित करने वाले राग-द्वेष पर जिन्होंने विजय प्राप्त करली है, भले वे ब्रह्मा, विष्णु, हरि और जिन किसी भी नाम से सम्बोधित होते हों उन्हें मेरा नमस्कार 'महारागो महाद्वेषो, महामोहस्तथैव च । कषायश्च हतो येन, महादेवः स उच्यते ॥ अर्थात् - जिसने महाराग, महाद्व ेष, महामोह और कषाय को नष्ट किया है वही महादेव है । इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य द्वारा शिव की उदारमना स्तुति करने पर सम्राट कुमारपाल तो प्रभावित हुआ ही किन्तु उनसे द्वेष भाव रखने वाले शैव- पण्डित भी दाँतों तले अंगुली दबा गये । आचार्य हरिभद्र वैदिक दर्शन के परगामी विद्वान तो थे ही फिर भी उन्होंने प्रतिज्ञा कर रखी थी यदि किसी दूसरे धर्मदर्शन को मैं समझ न सका तो मैं उसी का शिष्य बन जाऊँगा। एक बार रात्रि को राजसभा से लौटते समय राजपुरोहित हरिभद्र जैन उपाश्रय के निकट से गुजरे । उपाश्रय में साध्वी संघ की प्रमुखा 'महत्तरा याकिनी' निम्न श्लोक के स्वर लहरी में जाप कर रही थी 'चक्कि दुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव, garat केसीय चक्किथा | राजपुरोहित हरिभद्र ने यह श्लोक सुना तो उनको कुछ भी समय में नहीं आया तो अर्थ- बोध पाने की लालसा से उपाश्रय में प्रवेश कर याकिनी महत्तरा से इसका अर्थ पूछा तो उन्होंने कहाइसका अर्थ तो मेरे गुरु श्री जिनदत्त सूरि ही बता सकते हैं। जब गुरु के पास प्रातःकाल हरिभद्र गये तो श्री जिनदत्तसूरि ने कहा- जैन मुनि बनने पर ही इसका अर्थ समझ में आयेगा - तब तत्काल राजपुरोहित हरिभद्र ने जैन मुनि बनना ४१४ क Jain Education International स्वीकार कर राजपुरोहित से धर्म पुरोहित बन गये । जब इसका अर्थ गुरु से समझ लिया तो जैन शास्त्र ज्ञान की तरफ उनका झुकाव हो गया और अल्प समय में ही आगम, योग, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण, प्रमाण शास्त्र आदि विषयों के महान ज्ञाता और आगमवेत्ता बन गये और कई ग्रन्थों की टीकायें लिखीं । हंस और परम हंस हरिभद्रसूरि के भानजे थे भी जैन साधु बन गये । आचार्य श्री के मना करने पर भी वे बौद्ध दर्शन अध्ययन करने बौद्धमठ में गये । जैन - छात्र हैं, यह सन्देह होने पर बोद्ध प्राध्यापकों ने हंस को वहीं मार दिया और परमहंस किसी तरह भाग निकले किन्तु वह भी चित्तौड़ आकर मारे गये । अपने दोनों प्रिय शिष्यों के मर जाने से हरिभद्रसूरि को बहुत दुःख हुआ और बोद्धों से बदला लेने के लिए उन्होंने १४४४ बोद्ध-साधुओं को विद्या के बल से मारने का संकल्प लिया किन्तु गुरु का प्रतिबोध पाकर हिंसा का मार्ग छोड़कर १४४४ ग्रन्थों की रचना का संकल्प लिया और माँ भारती का भण्डार भरने लगे । दुर्भाग्य से इस वक्त ६० करीब ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं । जिसमें से आधे तक अब ही प्रकाशित हुए हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने उच्चकोटि का, विपुल परिमाण में विविध विषयों पर साहित्य की रचना की है । उनके ग्रन्थ जैन शासन की अनुपम सम्पदा है । आगमिक क्षेत्र में सर्वप्रथम टीकाकार थे। योग विषयों पर भी उन्होंने नई दिशा व जानकारी दी। आचार्य हरिभद्रसूरि ने आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार - इन आगमों पर टीका रचना का कार्य किया । 'समराइच्चकहा ' आचार्य हरिभद्रसूरि को अत्यन्त प्रसिद्ध प्राकृत रचना है । शब्दों का लालित्य, शैली का सौष्ठव, सिद्धान्त सुधापान कराने वाली कांत - कोमल पदावली एवं भावभिव्यक्ति का अजस्र पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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