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________________ PROOOOOOOOOOS2:0092e सत्संग-मध्यकाल में अध्यात्म-उपासना के शत्रु को दीजिए वैर रहै नहीं, प्रारम्भकर्ता साम्प्रदायिक वर्म भेद से दूर महान् भाट को दीजिए कीरति गावै। सन्त बनारसीदास ने सत्संग के सामर्थ्य को प्रति- साध को दीजिए मोख के कारन, पादित करते हुए कहा है कि जिस प्रकार मलया हाथ दियो न अकारथ जावै ।४५। चल की सुमन्धित पचन नीम के वृक्ष को चन्दन के जैन परम्परा में दान के चार प्रकारसमान सुगन्धित बना देती है, उसी प्रकार साधु औषधिदान, अन्नदान, अभयदान और ज्ञान-IN का साथ कुर्जन को भी सम्जन बना देता है- दान महत्वपूर्ण माने गए हैं। बत्तीसढाला के रच-साडू निंबादिक चंदन करै मलयाचल की बास। यिता टेकचन्द ने चारों दानों का प्रतिफल इस दुर्जन ते सज्जन भयो, रहत साधु के पास । २० प्रकार कहा है -ज्ञान पच्चीसी जो दे भोजन दान, सो मनवांछित पावै । मनोहरदास ने 'पारस' के संसर्ग से 'कंचन' में औषदि दे सो दान, ताहि न रोग सतावै । परिवर्तित होने वाले लोहे और 'रसायन' का सह- सूत्र तणां दे दान, ज्ञान सु अधिको पावै ।। योग पा सुस्वादु बनने वाले 'कत्था' का भी उदा- अभैदान फल जीव, सिद्ध होइ सो अमर कहावै ॥३२॥ हरण देकर सत्संग का माहात्म्य पुष्ट किया है- हेमराज गोदीका के मत से सम्पत्ति दान देने चंदन संग कीये अनि काठि से शोभा और वृद्धि को प्राप्त करती हैजु चंदन गंध समान जुहो है। संपति खरचत डरत सठ, मत संपति घटि जाय । 10 'पारस' सों परसे जिम लोह, इह संपति शुम दान दी, विलसत बढ़त सवाइ ।६६|| जु कंचन सुद्ध सरूप जु सोहै। योगिराज ज्ञानसार जी ने अपना-पराया तथा पाय रसायन होत कथीर पात्र-अपात्र का विचार किये बिना बड़ी उदारता||Ka जू रूप सरूप मनोहर जो है। से दान देने का निर्देश दिया हैत्यो नर कोविद संग कीयै अनुकंपा दांने दियत, कहा पात्र परखंत । सठ पंडित होय सबै मन मोहै। सम विसमी निरखै नहीं, जलधर धर बरसंत ।१५|| दान-दान अपरिग्रह का प्रकट रूप है । अतः -प्रस्तावित अष्टोत्तरी दान की महिमा सभी जैन मुक्तककारों ने थोड़ी वचन-सृष्टि के अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत अवश्य कही है। महाकवि द्यानतराय की मनुष्य को वाणी की सुविधा परमात्मा की एक ५२ छन्द की रचना दान बावनी के अनुसार निर्धन, अद्भुत कृपा है। महाकवि बनारसीदास और सेवक, भाट, साधु को दिया गया दान ही लाभ- ज्ञानसार दोनों ने ही कर्कश वचन त्यागकर मृड ) कारी नहीं होता, अपितु शत्रु को दिया गया दान वचन कहना प्रियता और टूटे दिलों को जोड़ने का || वैरभाव को समाप्त कर देने का महत्वपूर्ण काम साधन बतलाया हैकरता है जो कहै सहज करकश वचन, सो जग अप्रियता लहै || दीन को दीजिये होय दया मन, -वच. रत्न कविस-४ मीत को दीजिये प्रीति बढ़ावै ।। मन फाटे कू मृदु वचन, कह्यो करन उपचार। सेवक को दीजिए काम करै बहु, टूक टूक कर जुड़न कू, टांका देत सुनार ।४४। | ____ साहब दीजिए आदर पावै। - संबोध अष्टोत्तरी पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000 ucation Internatione Ny Pivate & Personal Use Only www.jainedvery.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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