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________________ जिन सात क्षेत्रों को विभाजित करते हैं उनके नाम हैं- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत । इन सातों क्षेत्रों में बहने वाली चौदह नदियों के क्रमशः सात युगल हैं, जो इस प्रकार हैं गंगा, सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी - नरकान्ता, सुवर्णकुला रूप्यकुला तथा रक्ता रक्तोदा । इन नदी युगलों में से प्रत्येक युगल की पहली पहली नदी पूर्व समुद्र को जाती है और दूसरी दूसरी नदी पश्चिम समुद्र को । भरत क्षेत्र का विस्तार पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन है । विदेह पर्यन्त पर्वत और क्षेत्रों का विस्तार भरतक्षेत्र के विस्तार से दूना दूना है। उत्तर के क्षेत्र और पर्वतों का विस्तार दक्षिण के क्षेत्र और पर्वतों के समान हैं । जम्बूद्वीप के अन्तर्गत देवकुरु और उत्तरकुरु नामक दो भोगभूमियाँ हैं । उत्तरकुरु की स्थिति सीतोदा नदी के तट पर है । यहाँ निवासियों की इच्छाओं की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है । इनके अतिरिक्त हैमवत, हरि, रम्यक तथा हैरण्यवत क्षेत्र भी भोगभूमियाँ हैं । शेष भरत, ऐरावत और विदेह (देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर) कर्मभूमियाँ हैं । भरतक्षेत्र हिमवान् कुलाचल के दक्षिण में पूर्व - पश्चिमी समुद्रों के बीच स्थित है । इस क्षेत्र में सुकौशल, अवन्ती, पुण्ड्र, अश्मक, कुरु, काशी, कलिंग, बंग, अंग, काश्मीर, वत्स, पांचाल, मालव, कच्छ, मगध, विदर्भ, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, कोंकण, आन्ध्र, कर्नाटक, कौशल, चोल, केरल शूरसेन, विदेह, गान्धार, काम्बोज, बाल्हीक, तुरुष्क, शक, कैकय आदि देशों की रचना मानी गई है । ३८६ (५) जम्बूद्वीप - प्राचीन एवं आधुनिक भौगोलिक मान्यताओं का तुलनात्मक विवेचन Jain Edo Internationa (क) सप्तद्वीप - विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण वायुपुराण और ब्रह्माण्ड पुराण प्रभृति पुराणों में सप्तद्वीप और सप्तसागर वसुन्धरा का वर्णन आया है । वह वर्णन जैन हरिवंश पुराण और आदिपुराण की अपेक्षा बहुत भिन्न है । महाभारत में तेरह द्वीपों का उल्लेख है । जैन मान्यतानुसार प्रतिपादित असंख्य द्वीप समुद्रों में जम्बू, च और पुष्कर द्वीप के नाम वैदिक पुराणों में सर्वत्र आए हैं । समुद्रों के वर्णन के विष्णु पुराण में जल के स्वाद के आधार पर सात समुद्र बतलाए हैं । जैन परम्परा में भी असंख्यात समुद्रों को जल के स्वाद के आधार पर सात ही वर्गों में विभक्त किया गया । लवण, सुरा, घृत, दुग्ध, शुभोदक, इक्षु और मधुर जल । इन सात वर्गों में समस्त समुद्र विभक्त हैं । विष्णु पुराण में 'दधि' का निर्देश है, जैन परम्परा में इसे 'शुभोदक' कहते हैं । अतः जल के स्वाद की दृष्टि में सात प्रकार का वर्गीकरण दोनों ही परम्पराओं में पाया जाता है । १ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री - " आदिपुराण में प्रतिपादित भारत", गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला वाराणसी, १६६८, पृष्ठ ३६ - ६४; आदिपुराण में; प्रतिपादित भूगोल प्रथम परिच्छेद तथा तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका, सम्पा दक पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १६६५, तृतीय अध्याय, पृष्ठ २११-२२२ । २ डा० नेमिचन्द्र शास्त्री 'आदिपुराण में प्रतिपादित भारत', पृष्ठ ३६-४० । जिस प्रकार वैदिक पौराणिक मान्यता में अन्तिम द्वीप पुष्करवर है, उसी प्रकार जैन मान्यता में भी मनुष्य लोक का सोपान वही पुष्करार्ध हैं । तुलना करने से प्रतीत होता है कि मनुष्य लोक की सीमा मानकर ही वैदिक मान्यताओं में द्वीपों का कथन किया गया है। इस प्रकार जैन परम्परा में मान्य जम्बू, धातकी और पुष्करार्ध, इन ढाई द्वीपों में वैदिक परम्परा में मान्य सप्तद्वीप समाविष्ट हो जाते हैं । यद्यपि क्रौंच द्वीप का नाम दोनों मान्यताओं में समान रूप से आया है, पर स्थान निर्देश की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है । 2 पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Ber www.jainenorg
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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