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________________ १० की भी चर्चा है । पुनः जैनधर्म के प्रसिद्ध एवं अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ( ३१८ ई० पू० ) के दो ज्योतिष ग्रन्थों - सूर्य - प्रज्ञप्ति पर टीका एवं भद्रबाहुसंहिता का उल्लेख मिलता है ।" ठाणांग, प्रश्नव्याकरणांग, समवायांग, सूयगडांग आदि द्वादशांग साहित्य (४००-१००० ई० पू० ) में नौ ग्रह, नक्षत्र, राशि, दक्षिणायन एवं उत्तरायण, सूर्यचन्द्र ग्रहण आदि तथ्यों का विवेचन है ।" जैन धर्म के महत्वपूर्ण ग्रन्थ स्थानांग सूत्र ( ३२५ ई० पू० ) के निम्नलिखित श्लोक में गणित के दश विषयों की चर्चा है 'परिकम्म वबहारो रज्जु रासी कला सवण्णेय । जावन्तावति वग्गो घणो ततः वग्गावग्गो विकप्पो व ॥ अर्थात् परिकर्म (मूलभूत प्रक्रियाएँ), व्यवहार ( विभिन्न विषय), रज्जु ( विश्व माप की इकाई, ज्यामिति), राशि (समुच्चय, त्रैराशिक ), कलासवर्ण ( भिन्न सम्बन्धी कलन ), यावत तावत ( सरल समीकरण), वर्ग (वर्ग समीकरण ), घन (घन समीकरण ) वर्ग वर्ग (द्विवर्ग समीकरण) एवं विकल्प (क्रम चयसंचय) - गणित के ये दश विषय हैं जिनका प्रयोग विशेष रूप से कर्म - सिद्धान्त की स्थापना के लिए किया जाता है । इससे इस तथ्य की भी पुष्टि होती है कि तत्कालीन जैनाचार्यों को गणित के इन विषयों का समुचित ज्ञान हो गया था। इन विषयों का विशद विवेचन-विश्लेषण महावीराचार्य ( ८५० ई०) ने अपने ग्रन्थ गणित - सार-संग्रह में किया है । उत्तराध्ययन एवं भगवती सूत्र ( ३०० ई० पू० ) में वर्ग, घन, संचय आदि अनेक महत्त्वपूर्ण गणितीय विषयों की चर्चा है । भगवती सूत्र ( सूत्र ३१४ ) में एक संयोग, द्विक् संयोग, (त्रिक संयोग आदि शब्दों का प्रयोग पाया जाता है जिससे संचय - सिद्धान्त की जानकारी मिलती हैं । साथ ही सूत्र ७२६-२७ में विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों-रेखा, वर्ग, घन, आयत, त्रिभुज, वृत्त एवं गोल की बनावट के लिए कम से कम कितने बिन्दुओं की आवश्यकता होती है - इसकी व्याख्या की गयी 14 जैन धार्मिक ग्रन्थ के एक प्रमुख ग्रन्थकार उमास्वाति (अथवा उमास्वामी) ने ( १५० ई० पू० ) में तत्त्वार्थाधिगम-सूत्रभाष्य नामक एक विशाल ग्रन्थ का प्रणयन किया जिसमें सम्पूर्ण जैन वाङ्मय को सार रूप में संकलित किया गया है । इसमें स्थानमान -सूची, भिन्नों का अपवर्तन, गुणा-भाग की विधियाँ, वृत्त के क्षेत्र फल, परिधि, जीवा, चाप की ऊँचाई एवं व्यास सम्बन्धी सूत्र आदि अनेक गणितीय सिद्धान्त निहित हैं । वे स्वयं गणितज्ञ थे अथवा नहीं, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं होता, पर इतनी बात निश्चित है कि उनके समय में कोई गणितीय ग्रन्थ अवश्य उपलब्ध रहा होगा जिससे उन्होंने अपनी रचना में कुछ गणितीय सूत्र उद्धत किए। इसके अतिरिक्त ने जम्बूद्वीप समास नामक एक ज्योतिष-ग्रन्थ के भी रचयिता माने जाते हैं । जैन आगमिक साहित्य अनुयोगद्वार सूत्र ( प्रथम शताब्दी ई० पू० ) में भी प्रथम वर्ग, द्वितीय वर्ग आदि का प्रयोग पाया जाता है जिससे यह ज्ञात होता है कि प्रथम शताब्दी ई० पू० में जैनाचार्यों को घातांकों के नियमों का ज्ञान हो गया था । साथ १ अगरचन्द नाहटा, आचार्य भद्रबाहु और हरिभद्र की अज्ञात रचनाएँ, जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान, चुरू, १९७६, पृ. १०७-८ २ नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्योतिष, दिल्ली, १६७०, पृ. ५४-७७ Jain Education International ३ स्थानांग सूत्र ७४३ ४ विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तराध्ययन, अहमदाबाद, १६३२ एवं भगवती सूत्र ( अभयदेव सूरी की टीका सहित ) सूरत, १६१६ ५. बी. बी. दत्ता, दि जैन स्कूल आफ मैथमैटिक्स, बुलेटिन, कलकत्ता मैथमैटिकल सोसाईटी, कलकत्ता, खंड २१, अंक २, १६२६, पृ. १२६ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only ३७१ www.jaineffbrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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