SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Oroges annnnnnnnunnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn ३५२ संस्कृत साहित्य और मुस्लिम शासक Jain Edu ternational - श्री भँवरलाल नाहटा ४. जगमोहन मल्लिक लेन, कलकत्ता- ७००००७ nnnnnnn nnnnnnnnnnnnnnnnnnnn nnnnnnnnn भारत में राज्यतन्त्र के माध्यम से इस्लाम का विस्तार हुआ और अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी की भाँति राज्यभाषा होने के कारण अरबी, फारसी और उर्दू का प्रचार हुआ किन्तु जन-जीवन में सभी प्रान्तों में अपनी मातृ भाषा ही विशेषतया प्रचलित थी । साहित्यिक भाषाओं में संस्कृत का प्रचार सर्वव्यापी था । लोक भाषाओं का विकास प्राकृत से अपभ्रंश के माध्यम से प्रान्तीय भाषाओं के रूप में होकर निर्माण हुआ था अतः मुसलमानों को भी अपनी मातृभाषा का गौरव था । किवामखानी नियामतखाँ आदि के ग्रन्थों में अपनी भाषा और चौहान वंश का गौरव पद पद पर परिलक्षित है । अबदुर्रहमान का सन्देश रासक अपने पूर्वजों की भाषा का ज्वलन्त उदाहरण है । उस पर लक्ष्मी निवास ने संस्कृत टीका का निर्माण किया था । यह इस्लाम का साहित्यिक योगदान ही कहा जाएगा । संस्कृत भाषा की भाँति प्राकृत भाषा सजीव थी, उसका पर्याप्त प्रचार था । आज प्राकृत दुरूह लगती है पर मध्यकाल 'वह बोलचाल की भाषा के निकट होने से संस्कृत से भी सरल पड़ती थी । यही कारण है कि सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के राज्याधिकारी ठक्कुर फेरू ने अपने सभी वैज्ञानिक ग्रन्थों का निर्माण प्राकृत भाषा में किया । यद्यपि उसमें बोलचाल की भाषा के शब्दों को देश्य प्राकृत रूप में प्रयोग करने में कठिनाई नहीं थी पर जब प्राकृत लोक भाषा के विकास और परिवर्तन के कारण दूर पड़ने लगी तो उन्हें समझने के लिए व अर्थ विस्तार के लिए संस्कृत टीकाओं का निर्माण अपरिहार्य हो गया । अतः पर्याप्त मात्रा में उसका अस्तित्व सामने आया । ब्राह्मण वर्ग में वैदिक संस्कृत जो एक तरह की प्राकृत ही थी, जनता से बिल्कुल अलग हो चुकी थी तो गत दो सहस्राब्दियों से संस्कृत ही बहुजनसंमत और जीवन्त समृद्ध भाषा हो गई । राजसभा में विद्वद् गोष्ठियाँ और शास्त्रार्थ आदि संस्कार सम्पन्न लोगों के लिए उच्चस्तरीय माध्यम था । सम्राट् विक्रमादित्य, भोज, पृथ्वीराज, दुर्लभराज, सिद्धराज जयसिंह आदि की परम्परा सभी शासकों में चलती आई थी, भले ही वह किसी भी वर्ग के रहे हों । सोमसुन्दरसूरि को खम्भात में दैफरखान ने वादि गोकुल संकट विरुद दिया था । मुस्लिम शासकों के दरबार में गोष्ठियाँ, शास्त्रार्थ आदि की गौरवपूर्ण परम्परा थी। और इससे साहित्य की अनेक विधाओं को प्रोत्साहन मिलता था । यहाँ हमें इस्लाम धर्म के अनुयायी शासकों के संस्कृत साहित्य के योगदान के सम्बन्ध में किंचित् विवेचन अपेक्षित है । चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कसमवती अभिनन्दन ग्रन्थ DW/www.jainelibarha
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy