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________________ के लिए यही मार्ग अपनाते हैं, तो वह भी इस दुष्प्रभाव में आकर उसी पथ पर चलता है— उनका अनुकरण करता है । इसी से ल्योन आइजनबर्ग कहता है कि हिंसा दुष्परिणाम है अन्तरवर्ग संघर्ष का, जिसे हमारे नेता बढ़ावा दे रहे हैं। हमें समस्त मानव समाज को अविभक्त इकाई के रूप में ग्रहण कर मानवीय मूल्यों का विकास करना होगा । भ्रातृत्व और मैत्री का सिद्धान्त प्राचीन है, पर आज मानव अस्तित्व की रक्षा की वह प्रथम अनिवार्यता है । हमें यह निःसंकोच स्वीकार करना होगा कि मनुष्य ही अपना भाग्यविधाता है व पुरुपार्थ ही उसका नियामक है। प्रसिद्ध विचारक बन्ड रसल ने सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों में जीवन की इस आंतरिक प्रक्रिया को अहिंसा, सत्य, समता, अपरिग्रह और सात्विक आचरण को ही प्रमुख गिना है । ये विद्वान विचारक आज जिस तथ्य की ओर संकेत कर रहे हैं, शताब्दियों पूर्व भगवान महावीर ने यही बताया था। उन्होंने 'आयओ बहिया पास तम्हा न हन्ता न विघाइए ।' अहिंसा के द्वारा विश्व मंत्री का संदेश दिया, मनुष्य मनुष्य को समान बताया "चरणं हवइ सधम्मो सो हवइ अप्पसमा वो' सो राग रोस रहिओ जीवस्स अण्ण परिणामो ।" न कोई जाति उच्च है और न कोई हीन - नो होणो णो-अइरित्त णो पीहए' उन्होंने सत्य की सापेक्षता के साथ-साथ सहअस्तित्व पर जोर दिया, पुरुषार्थ के लिए कहा - पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त, किं बहिया मित्तमिच्छसि । कषाय व दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति का मार्ग बताया, आध्यात्मिक विकास के साथ मानवीय उच्चता और चारित्र पर दृष्टि रखी । उनका उद्घोष था - ' सच्चं मिधिति कुबह ।' जहाँ सत्य है वहाँ भय नहीं । 'न भाइयव्वं ।' वे ३५० Jain Education International समझाते रहे 'विसंकटकओव्व हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ।' सबके साथ मैत्री भाव रखो, किसी से वैरविरोध न हो यदि युद्ध ही करना है तो अपने से करो । आन्तरिक शुद्धि ही सर्वश्रेष्ठ है, बाह्य शुद्धि सुमार्ग नहीं । धन और संग्रह प्रमाद का कारण है - 'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।' 'लाभस्सेसो अणु फासो मन्न अन्नय राभावे' उन्होंने सदैव जाग्रत रहने को कहा - विनय और विवेक को आत्मज्ञान को पीठिका बताया । शोषण और परिग्रह का खुलकर विरोध किया - क्योंकि 'जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो-पव ड्ढइ ' परिग्रही को शान्ति, सुख और सन्तोष कहाँ -- वह तो 'सव्वतो पिच्छतो परिमसदि पलादि मुज्झदिय ।' यही तो अहिंसा का राजपथ है - शान्त, स्थिर, सौम्य और श्रेष्ठ । आज की भयभीत संत्रस्त और अभिशप्त मानव जाति के लिए यही तो परमोषधि संजीवनी है, लोकहित और सर्वभूतहित की, सर्वोदय की, सामाजिक परिवर्तन की । महावीर की परम्परा में ही महात्मा गाँधी ने भी यही मार्ग अपनाया और कहा - सामाजिक और आर्थिक अहिंसा ही स्थायी शान्ति की जननी है | अहिंसा से ही मानवसमाज वर्तमान विभीषिका, विजीगिषा और विसंगति से मुक्त हो सकता है । उन्होंने स्पष्ट कहा कि एक सच्चा अहिंसक व्यक्ति समस्त समाज का रूपान्तरण कर सकता है। महावीर ने यही किया और यही कहा । श्रीगुणवन्त शाह ने ठीक हो कहा है कि आज जैन ( और अहिंसा) दर्शन की सार्थकता अहिंसक समाज की रचना की स्थापना में है । ऐसे समाज में शाकाहार का बोलवाला होगा, प्रदूषण न्यूनतम होगा, शोषण नहीं के बराबर और आर्थिक असमानता एकदम कम होगी और युद्ध सदा के लिए नहीं होगा। आज हमें अहिंसा को चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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