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________________ है लेकिन विषय का मर्मज्ञ नहीं बना सकी। यह इस प्रकार हम जैन-शिक्षा और आधुनिक शिक्षा कहना भी अनुचित नहीं होगा कि ये आधुनिक पर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि जैन शिक्षा में शिक्षा नैतिकता, सहनशीलता, चरित्र-निर्माण, त्याग, इहलौकिकता के साथ-साथ पारलौकिकता की भी तप, अनुशासन तथा विनम्रता आदि गुण की दृष्टि शिक्षा दी जाती थी वहीं आज की शिक्षा जिसे से सर्वथा असफल रही है । आज न वे अध्यापक हैं, आधुनिक शिक्षा के नाम से जाता है, में केवल इहन वह छात्र और न वह शिक्षण केन्द्र ही, जहाँ गुरु लौकिकता का ही समावेश है। यद्यपि वर्तमान और शिष्य दोनों पिता-पुत्र के समान रहते थे। परिवेश में अब प्राचीन शिक्षण प्रणाली नहीं अपA समय के अनुकूल हर चीज में परिवर्तन होता रहता नायी जा सकती किन्तु शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति के सा है । अतः यह कहा जा सकता है कि समय और युग अनुकूल शिक्षा को बनाया जा सकता है। इस क्षेत्र के अनुकूल मानव समस्या, आवश्यकता और उनकी में पहल करने के लिए सर्वप्रथम बालक को समाज आकांक्षाओं के अनुरूप शिक्षा का आयाम भी बढ़ता के प्रति संवेदनशील बनाना होगा। जिसके लिए जा रहा है। परिवार और विद्यालय के बीच सार्थक संवाद होना - आज के इस विज्ञान और तकनीकी युग में हम आवश्यक है। साथ ही प्राथमिक शिक्षा से लेकर शिक्षा को तीन श्रेणियों में विभाजित करके देख उच्च शिक्षा तक समाज हितोपयोगी आध्यात्मिक सकते हैं-(क) उच्चतम, (ख) मध्यम और (ग) ज्ञान की शिक्षा का होना आवश्यक है। परन्तु निम्न । उच्चतम श्रेणी में चिकित्सा, आभियान्त्रिकी, आध्यात्मिकता के साथ भौतिकता का भी सामंजस्य ही कम्प्यूटर आदि की शिक्षा मानी जाती है। मध्यम होना चाहिए । जैसा कि जैन शिक्षण प्रणाली में है । श्रेणी में कला, वाणिज्य आदि की शिक्षा तथा इतना ही नहीं प्रत्येक शिक्षार्थी को रुचि के अनुकूल निम्न श्रेणी में संस्कृत, साहित्य, वेद-वेदांग आदि जीविकोपार्जन के लिए कुशल बनाया जाए। की शिक्षा मानी जाती है। पत्राचार का पताविजयकुमार जैन, शोध छात्र, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान आई.टी. आई. रोड, वाराणसी-५ 0---- ------- अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भई । थम्मा कोहा पमाएणं रोगेणालस्सएण य ।। --उत्तरा. ११/३ जिस व्यक्ति में अहंकार अधिक है-गर्व में फूला रहता हो, बातबात में क्रोध करता हो, शरीर में आलस्य भरा रहता हो, किसी प्रकार को व्याधि अथवा रोग से ग्रस्त हो, जो शिक्षा प्राप्ति में उद्यम अथवा पुरुषार्थ न करे-ऐसे व्यक्ति को शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती। ३३७ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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