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________________ -०-०-०-०-०-०-०-० SAN । जैन दर्शन के अध्येता की दृष्टि में भगवान् महावीर की मौलिक 12 देन है- अनेकान्तवाद । इसलिए जहाँ कहीं भी प्रसंग आया है, इस I विषय पर विशदता से प्रकाश डाला गया है। वैचारिक क्षेत्र में अनेकान्तवाद एक महत्वपूर्ण तत्व है. इसे हम किसी भी स्थिति में IA नकार नहीं सकते। किन्तु इस सार्वभौम तथ्य के अतिरिक्त भगवान् ___ महावीर ने एक ऐसा भी तत्त्व दिया था, जो आचार क्षेत्र में गृहस्थ libs समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सामान्यतः हर दर्शन प्रणेता अपने अनुयायियों के लिए आचार का निरूपण करता है। किन्तु गृहस्थ समाज के लिए अतिरिक्त रूप से नैतिकता का चिन्तन देने वाले भगवान् महावीर ही थे । वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में 718 भगवान् महावीर का वह चिन्तन जन-जन को नया आलोक देने वाला है। ____ मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव समाज में कुछ ऐसी वृत्तियाँ पनपने लगीं जो मनुष्य के आचार को खतरा पहुँचाने । वाली थीं। इन वृत्तियों के मूल में व्यक्ति की स्वार्थ-भावना अधिक काम करती है। इसलिए मनुष्य वैयक्तिक स्वार्थ का पोषण करने के लिए दूसरों को सताना, झूठे आरोप लगाना, झूठी साक्षी देना, व्यापार में अप्रामाणिक व्यवहार करना, संग्रह करना आदि-आदि प्रवृत्तियों में सक्रिय होने लगा। इस सक्रियता से नैतिक मानदण्ड टूट गये । फलतः - वही व्यक्ति पूजा, प्रतिष्ठा पाने लगा जो इन कार्यों के द्वारा अर्थोपार्जन करके अपने समय की समस्त सुविधाओं का भोग करता -डॉ० रामजीराय, आरा और उनके द्वारा संस्थापित नैतिक मूल्य भगवान् महावीर 4 था। ) भगवान् महावीर के युग में भी नैतिक मूल्य स्थिर नहीं थे । नैतिकता के मूल्य ही जब विस्थापित हो गये तब अमानवीय व्यवहारों पर रोक भी कैसे लगाई जा सकती थी ? मूल्य की स्थापना की कसमकस के समय एक ऐसी आचार संहिता की अपेक्षा थी, जो नैतिकता की हिलती हुई नींव को स्थिर कर सके। भगवान महावीर इस स्थिति से अनजान नहीं थे। क्योंकि उनके पास अव्याबाध ज्ञान था। उन्होंने मुनि धर्म (पाँच महाव्रतों) की प्ररूपणा करके जीवन-विकास के उत्कृष्ट पथ का संदर्शन किया। किन्तु हर व्यक्ति में उस पर चलने की क्षमता नहीं होती, इसलिए उन्होंने अणुव्रतों की व्यवस्था की है । स्थानांगसूत्र में उन अणुव्रतों का नामोल्लेख करते हुए लिखा गया है-पंचाणुवत्ता पन्नत्ता, तं जहाथूलातो पाणाइवायातो वेरमणं, थूलातो मुसावायातो वेरमणं, थूलातो अदिन्नादानातो वेरमणं, सदार संतोसे, इच्छा परिमाणे । चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम -०-०-०-०-०-०-०-० Janator साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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