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________________ SE 00000000000 जैन धर्म साधना तथा आचार का भव्य प्रासाद पंच आयामों की पुष्ट आधारशिला पर टिका हुआ है। कहते हैं कि भगवान महावीर के पूर्व जैन धर्म चतुआयामी ही था, उन्होंने इसमें पंचम आयाम h) 'ब्रह्मचर्य' की जोड़कर जैन धर्म को पंच आयामी धर्म बनाया। पंच आयाम इस प्रकार हैं-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) अपरिग्रह एवं (५) ब्रह्मचर्य । प्रस्तुत निबन्ध में तृतीय आयाम 'अस्तेय' दो की विवेचना करना अभीष्ट है । 'दशवकालिक सूत्र' में इसकी व्याख्या र करते हुए कहा है चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहु । दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहं से अजाइया ।। तं अप्पणा न गिण्हन्ति, नो वि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणंपि नाणजाणन्ति संजया । -अध्याय ६ गाथा १४-१५ अर्थात्-पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दाँत कुरेदने वाली सींक जैसी तुच्छ वस्तु ही क्यों न हो, पूर्ण Lil संयमी साधक दूसरों की वस्तु को उनकी अनुमति के बिना न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करते हैं और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करते हैं। आशय यह है कि जो । व्यक्ति दूसरों को तृणमात्र वस्तु भी यदि स्वयं चुराता है या चोरी । o करने की इच्छा करता है अथवा दूसरों को चुराने हेतु प्रेरित या उनके चुराने का अनुमोदन करता है वह चोर है और जो व्यक्ति इस प्रकार के कृत्यों का सर्वदा और सर्वथा त्याग करता है वह अस्तेय का पालक है । स्तेय का अर्थ है चोरी करना और चोरी न करना अस्तेय कह लाता है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात दोहराई गयी है (अध्याय 24| १६ गाथा २७)। 'सूत्रकृतांग' की गाथाएँ और भी स्पष्ट उद्घोषणा १५ करती हैं तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसूय पडुच्च । जे लूसए होई अवत्तहारी, ण सिक्कई सेय वियस्स किंचि ।। उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहिं पाएहि य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा ।। -सू. ५/१/४, १/१०/२ ___ अर्थात् जो मनुष्य अपने सुख के लिए त्रस तथा स्थावर प्राणियों की क्र रतापूर्वक हिंसा करता है, उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाता है एवं दूसरों की चोरी करता है और आदरणीय व्रतों का कुछ भी चतुर्य खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम ॐ जैन साधना का तृतीय आयाम अदत्तादान-विरमण की वर्तमान प्रासंगिकता 9000000000000000000000-00000000000000000PEOER क, दर्शन विभाग, सागर विश्वविद्यालय, -ब्रजनारायण शर्मा 0 00000 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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