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________________ 0-0 0 बाल ब्रह्मचारिणी महासती उज्ज्वलकुमारी जी की सुशिष्या -डॉ० साध्वी दिव्यप्रभा (एम. ए. पी-एच. डी.) श्रमण संस्कृति का व्यापक दृष्टिकोण -0-- श्रमण एक शाब्दिक अर्थ श्रमण संस्कृति का मूलाधार स्वयं श्रमण शब्द ही है। प्राकृत में यह शब्द 'समण' के रूप में मिलता है । परम्परा से रूपान्तर होते हुए 2 यह शब्द तीन स्वरूप में उपलब्ध है-१. श्रमण-२. समन३. शमन। (१) श्रमण किसे कहते हैं- श्रमण शब्द श्रम धातु से बना है । इसका अर्थ है श्रम करना। अर्थात् जो संयम में श्रम करे उसे श्रमण कहते हैं। श्रमण अपना विकास अपने ही परिश्रम से करता है। वह अन्तरंग उपयोग के साथ, विषय-वासना से पर होकर, यश, मान, सम्मान, प्रतिष्ठा की आंतरिक इच्छा से शून्य, मनसा, वाचा, कर्मणा से निश्चल, निष्कंप, एकाग्र बनकर, तप, त्याग, वैराग्य भाव में अनुरक्त होकर, उसी में चितन-मनन, निदिध्यासन करते हए केवल निजात्मा को कर्ममल से विशुद्ध बनने का सतत श्रम करता है। अतः उस आत्म तत्त्व की प्रवृत्ति रूप श्रम में यदि उन्हें लाभ-अलाभ, सुखदुःख, जीवन-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा या मान-अपमान जो कुछ भी होवे, सर्वत्र वह स्वयं उत्तरदायी है। ___ आचार्य हरिभद्रसूरि श्रमण की व्याख्या करते हुए कहा है कि 'नवि मुण्डिएण समणो । समयाए समणो होइ ।' साधक केवल मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं होता किन्तु श्रमण होता है समता की साधना से। (२) समन किसे कहते हैं-समन का अर्थ है समताभाव । समन शब्द सम शब्द से व्युत्पन्न है। 'सममणई तेण सो समणो' जो जगत के सर्व जीवों को तुल्य मानता है वह समन है। सूत्रकतांग सूत्र में भगवन्त ने कहा है कि मुनि गोत्र, कुल आदि का मद न करे, दूसरों से घृणा न करे, किन्तु सम रहे जो दूसरों का तिर- IC स्कार करता है वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है, इसीलिए मुनि मद न करे किन्तु सम रहे । __महत् पुरुषों की दृष्टि में राजा हो या रंक, सेठ हो या सेवक, मूर्ख हो या पण्डित, सभी समान होते हैं इसलिए ही चक्रवर्ती भी दीक्षित होने पर पूर्वदीक्षित अपने सेवक के सेवक को भी वन्दन करने में संकोच नहीं करता। किन्तु समत्व का आचरण करता है। समत्वयोगी | विषय-कषायादि पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है । १ २ सूत्रकृतांग १/२/२/१ सूत्रकृतांग १/२/२/२ --0 -0 -0 -C ३१४ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आराम - - T7 8 98 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6,036 Jain Education International Por. Private & Personal Use Only www.jaineliborg
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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