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________________ उतने उतने रूप में आत्म-स्वरूप में निखार आता चला जाता है । इस तरह सुप्त आत्मिक शक्तियों को जागृत होने का, आत्मिक ऊर्जा ऊष्मा के उद्गम केन्द्रों को सक्रिय होने का अवसर मिलता है । आत्म-विज्ञान की अनूठी विशेषता भास्कर की भांति तेजस्विता प्रखरता का प्रतीक रही है । जिसमें "सत्यं शिवं सुन्दरम् " इन तत्वों का समन्वित रूप ही उसकी सार्थकता, सम्पूर्णता और शाश्वतता स्वयंसिद्ध हैं । आत्म-विज्ञान जितना सत्य है, उतना ही सुन्दर और जितना सुन्दर उतना ही शिवदायक रहा है । यह विशेषता भौतिक विज्ञान में कहाँ ? अध्यात्म विज्ञान ने बताया, तू आत्मा है । जो तेरा स्वभाव है, वही तेरा धर्म है। जो कभी मिथ्या नहीं होता। तीनों काल में सत्य ही सत्य रहता है । चित् का अर्थ चैतन्य रूप, ज्ञान का प्रतीक, जो कभी जड़त्व में नहीं बदला, और आनन्दरूप जो कभी दुख में परिवर्तित नहीं हुआ । आत्मा का अपना धर्म यही है । आत्मा से भिन्न विजातीय कर्म के मेल के कारण ही यह सब दृश्यमान मिथ्या प्रपंच है । यही कारण है कि संसारी सभी आत्माओं में पर्याय की दृष्टि से विभिन्नता परिलक्षित होती है । विभिन्नता का अन्त ही अभिन्नता है । वही आत्मा का सर्वोपरि विकास है और उस विकास की बुनियाद रही है - अध्यात्म विज्ञान | अध्यात्म विज्ञान ने जिस तरह जीव विद्या विज्ञान का विश्लेषण प्रस्तुत किया है उसी तरह जड़ जगत् का भी अति सूक्ष्म रीति से शोधन-अनुसंधान कर हेय - उपादेय का प्रतिपादन किया है । इतना ही नहीं अध्यात्म विज्ञान की दूसरी विशेषता यह रही है कि वह पुनर्जन्म, परलोक, स्वर्ग-अपवर्ग आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप, संसार- मोक्ष, धर्म-कर्म दृष्टि, ध्यान ज्ञान, योग- अनुष्ठान, जीव-अजीव और जगत् इस तरह अध्यात्म एवं भौतिक विषयों का तलस्पर्शी अनुसंधान-अन्वेषण करता हुआ, वस्तु स्थिति का यथार्थ निर्देशन प्रत्यक्ष रूप से करा देता है। यही नहीं आत्मा के उन अज्ञात सभी गुण शक्तियों के केन्द्रों को उजागर में ले आता है । चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम Jain Education International साधक आत्मा नहीं चाहती कि मुझे भौतिक सम्पदा की प्राप्ति हो तथापि घास-फूस न्यायवत् अध्यात्म-साधना की बदौलत अनायास कई लब्धियों के अज्ञात केन्द्र खुल जाते हैं । साधक के चरणों में कई सिद्धियाँ लौटने लगती हैं। जैसे पांचों इन्द्रियाँ - श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन एक-एक विषय को अपना ग्राह्य बनाती रही हैं किन्तु जब आत्मविज्ञ साधक आत्मा को संभिन्न श्रोत नामक लब्धि की प्राप्ति हो जाती है, तब शरीर के दे अज्ञात केन्द्र स्वतः खुल जाते हैं और वह साधक आत्मा सभी इन्द्रियों से सुनने, देखने, सूंघने लगती है या इन लब्धि वाले साधक को रूप, रस, गंध और स्पर्शन का ज्ञान अनुभव किसी भी इन्द्रिय से हो जाता है, उक्त विशेषता भौतिकविज्ञान में कहाँ ? प्राणघातक बीमारियाँ जैसे- जलोदर, भंगदर, कुष्ठ, दाह, ज्वर, अक्षिशूल, दृष्टि- शूल और उदरशूल इत्यादि रोग लब्धिधारी साधक के मुंह का थूक (अमृत) लगाने मात्र से मिट जाते हैं । चौदह पूर्व जितना लिखित अगाध साहित्य आगम वाङ् मय को यदि कोई सामान्य जिज्ञासु स्वाध्याय करने में पूरा जीवन खपा दे तो भी सम्पूर्ण स्वाध्याय नहीं पावेगा किन्तु वे लब्धि प्राप्त साधक केवल ४८ मिनट में सम्पूर्ण १४ (चौदह) पूर्व का अनुशीलनपरिशीलन करने में सफल हो जाते हैं । ऐसी एक नहीं अनेक सिद्धियां भ० महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम - सुधर्मा गणधर के अलावा और भी अनेकों महामुनियों को प्राप्त थी । अध्यात्म-विज्ञान-साधना की पृष्ठभूमि जब उत्तरोत्तर शुद्ध शुद्धतर बनती चली जाती है, निखार के चरम बिन्दु को छूने लगती है, वहीं आत्म-परिष्कार की सर्वोत्तम कार्य सिद्धि हो जाती है, तब आत्मा शनैः-शनैः मध्यस्थ राहों का अतिक्रमण करती हुई सम्पूर्ण विकास की सीमा तक पहुँच जाती है । सदा-सदा के लिये कृतकृत्य हो जाती है । भूत, भविष्य, वर्तमान के समस्त गुण ( पर्यायों की ज्ञाता दृष्टा बनकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी प्रभु रूप हो जाती हैं । साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only २६५ www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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