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________________ रेल सुन्दरी दोनों पुत्रियों ने कुमारी अवस्था में ही वस्तुतः ज्ञान और क्रिया का संयुक्त रूप ही श्रमणा पद ग्रहण किया था। विवाह के लिए समु- मोक्ष का हेतु है, जैसाकि कहा गया है-“ज्ञान द्यत राजीमती भी नेमिनाथ द्वारा दीक्षा लेने पर क्रियाभ्यां मोक्षः इति सर्वज्ञोपदेशः" - सूत्रार्थ HC । श्रमणा (आर्यिका) बन गई थीं । तीर्थकर नेमिनाथ, मुक्तावलि ४५ ।। पार्श्वनाथ और महावीर ने भी कुमार अवस्था में ब्राह्मणा भुजते नित्यं नाथबन्तश्च भुजते । ही श्रमण दीक्षा ग्रहण की थी। स्वयं शाक्टायन भी तापसा भुजते चापि श्रमणाचैव मंजते ।। श्रमण संघ के आचार्य थे। जैसा कि निम्न उद्धरण -बाल्मीकि रामायण वा० ल से स्पष्ट है__"महाश्रमण संघाधिपतिर्यः शाक्टायनः" । यहाँ नित्यप्रति बहुत से ब्राह्मण, नाथवन्त, -शाकटायन व्याकरण चि० टीका १ तपस्वी और श्रमण भोजन करते हैं। प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी का निम्न सूत्र भी इस प्रकार अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ दृष्टव्य है रही-श्रमणसंस्कृति की अविच्छिन्न, परम्परा वैदिक "कुमारः श्रमणादिभिः"-अष्टाध्यायी २११/७० काल में पर्याप्त विकसित तथा पूर्णता प्राप्त थी, "येषां च विरोधः शाश्वतिकः इत्यस्यावकाशः उस समय इसके अनुयायियों को संख्या भी अपेक्षा श्रमण ब्राह्मणम्" -पातजल महाभाष्य ३/४/8 दृष्टि से बहुत अधिक थी, वर्तमान में मोहन जोदड़ो पाणिनी के इस सूत्र का यह उदाहरण है, के उत्खनन से प्राप्त सांस्कृतिक अवशेषों में अनेक जिनका शाश्वत विरोध है यह सूत्र का अर्थ है। ध्यानस्थ योगियों की मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं जिससे यहाँ जो विरोध शाश्वतिक बतलाया है वह किसी जैनधर्म और श्रमण संस्कृति की प्राचीनता म हेतु विशेष से उत्पन्न नहीं हुआ । शाश्वतिक विरोध निर्विवाद रूप से सिद्ध होती है, अनेक ऐतिहासिक सैद्धान्तिक ही हो सकता है । क्योंकि किसी निमित्त प्रमाणों से यह तथ्य सिद्ध है कि वैदिक युग में से होने वाला विरोध उस निमित्त के समाप्त होने व्रात्यों और श्रमण ज्ञानियों की परम्परा का प्रतिपर दूर हो जाता है। किन्तु महर्षि के शाश्वतिक निधित्व जैनधर्म ने किया । धर्म, दर्शन, संस्कृति, पद से यह सिद्ध होता है कि श्रमणों और ब्राह्मणों नीति, कला और शिल्प की दृष्टि से भारतीय इतिका कोई विरोध है जो शाश्वतिक है। इस आशय हास में जैनधर्म का विशेष योग रहा है। से हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हए एकेश्वरवाद तथा जैनधर्म और श्रमण संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान से मुक्ति मानते जबकि श्रमण परम्परा अनेके- जहाँ तक प्रश्न है वह सर्वथा निर्मूल एवं अव्यावश्वर तथा अनेकान्त सिद्धांत के आधार पर हारिक है, क्योंकि दो वस्तुओं का पारस्परिक अनासक्ति, त्याग और कटोर तपश्चरण के सम्बन्ध केवल वहाँ होता है जहाँ दो वस्तुओं में द्वारा कर्मों की निर्जरापूर्वक मुक्ति को पृथकता या भिन्नता होती है, यहाँ श्रमण संस्कृति मानते हैं, उनके अनुसार सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान वस्तुतः जैनधर्म से भिन्न या पृथक् नहीं है, दोनों में और सम्यक्चारित्र से ही मोक्ष की उपलब्धि शाब्दिक भिन्नता अवश्य है । दोनों अभिन्न और एक सम्भव है । इसके अतिरिक्त श्रमण विचारधारा के हैं। जैनधर्म के कारण श्रमण संस्कृति का आध्याअन्तर्गत ईश्वर का सृष्टिकर्तृत्व स्वीकार नहीं किया त्मिक पक्ष इतना समुज्ज्वल और लोक कल्याकारी गया है। श्रमण और ब्राह्मणों का यही सैद्धान्तिक हुआ है, यही कारण है कि यह संस्कृति जैन विरोध शाश्वतिक कहा जा सकता है । संस्कृति के नाम से भी व्यवहृत होती व जानी २८२ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम | REMEONE हट साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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