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________________ होने से रोकता है और तपश्चरण उसकी कर्मनिर्जरा वेशपरिवर्तन को श्रमण परम्परा कब महत्व देती में सहायक होता है। संयम के बिना वह तपश्चरण है ? साधना के लिए मात्र बाह्य वेष ही पर्याप्त की ओर अभिमुख नहीं हो सकता और तपश्चरण नहीं है अपितु तदनुकूल विशिष्टाचरण भी अपेक्षित के बिना उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति है। में उसका मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मसाधन का ध्येय अपने विशिष्टाचरण एवं त्याग भावना के अपूर्ण ही रह जाता है, अतः सुनिश्चित है कि संयम कारण ही श्रमण सदैव गृहस्थ की अपेक्षा उच्च धर्म तपश्चरण का अनुपूरक है। इस विषय में माना गया है, अतिचार रहित ब्रतों का पालन करना आचार्यों के अनुसार-"इच्छानिरोधो तपः"- ही उसका वैशिष्ट्य है, मनसा, वाचा और कर्मणा अर्थात्-इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता पांच महाव्रतों सहित सत्ताईस मूलगुणों तथा उत्तर है, तप का यह लक्षण संयम और तप के पारस्परिक गुणों का पालन व अनुशीलन उसकी आत्मा की शुद्धि न सम्बन्ध को स्पष्ट करता है । क्योंकि इच्छाओं व निर्मलता के लिए नितान्त आवश्यक है, इससे ph (इन्द्रियजनित वासनाओं) का निरोध करना ही उसकी आत्मा निरन्तर सांसारिक कर्म बन्धन से संयम है और उसके सानिध्य से विहित क्रियाविशेष मुक्त होकर मोक्षाभिमुख अग्रसर होता है । ही तपश्चरण है। श्रमण और गृहस्थ का अन्तर स्पष्ट करते हुए संसार में समस्त इच्छाएँ और वासनाएँ इन्द्रि- कहा गया है-"वह पास भी नहीं है और दर भी यजनित होती है, इनकी अभिव्यक्ति सांसारिक व नहीं है, भोगी भी नहीं है और त्यागी भी नहीं है। भौतिक क्षणिक सुखों के लिए होती है। इन इच्छाओं जिसने भोग छोड़ा, किन्तु आसक्ति नहीं छोड़ी, अतः एवं वासनाओं को रोककर संसार के प्रति विमुखता वह न भोगी है और न त्यागी है । भोगी इसलिए A इन्द्रियों को अपने अधीन करना तथा चित्तवृत्ति की नहीं है कि भोग नहीं भोगता और त्यागी इसलिए ला एकाग्रता ही संयमबोधक होती है। इस प्रकार के नहीं है कि वह आसक्ति (भोग) की भावना का संयम का चरम विकास मनुष्य के मुनित्व जीवन में त्याग नहीं कर सका।" O ही संभावित है, अतः संयमपूर्ण मुनित्व जीवन ही "पराधीन होकर भोग का त्याग करने वाला श्रामण्य का द्योतक है। त्यागी या श्रमण नहीं है, त्यागी या श्रमण वह ____श्रमण परम्परा के अनुसार आपेक्षिक दृष्टि से है जो स्वाधीन भावनापूर्वक भोग से दूर रहता - गृहस्थ को निम्न एवं श्रमण को उच्च स्थान प्राप्त है।" - दशवकालिक २/२ है। किन्तु साधना के क्षेत्र में निम्नोच्च की कल्पना आत्म-साधना के पथ पर आरूढ़ होकर निरन्तर * को किंचित् मात्र भी प्रश्रय नहीं दिया गया है। पांच महाव्रतों का अखंड रूप से पालन करने वाला, वहाँ संयम की ही प्रधानता है। इस विषय में उत्त- दस धर्मों का सतत् अनुचिन्तन, मनन और अनुशीलन ( राध्ययन में भगवान महावीर के निम्न वचन अनु- करने वाला, बाईस परीषहजय तथा रत्नत्रय को करणीय एवं दृष्टव्य हैं-"अनेक गृहत्यागी भिक्षुओं धारण करने वाला, शुद्ध परिणामी, सरल स्वभावी, की अपेक्षा कुछ गृहस्थों का संयम प्रधान है और अन्तर्मुखी दृष्टि से आत्मसाक्षात्कार हेतु प्रयत्नशील ॐ उनकी अपेक्षा साधनाशील संयमी मुनियों का संयम तथा श्रमण धर्म को धारण करने वाला साधु ही प्रधान है ।" इस प्रकार श्रमण संस्कृति में संयमपूर्ण श्रमण कहलाता है और निज स्वरूपाचरण में प्रमाद साधना को ही विशेष महत्व दिया गया है। श्रमण न होना उसका श्रामण्य है। श्रमण सदैव राग-द्वेष परम्परा के अनुसार मोहरहित व्यक्ति गाँव में भी आदि विकार भावों से दूर रहता है । ये ही विकार साधना कर सकता है, और अरण्य में भी। कोरे सांसारिक मोह और ममता के मूल कारण हैं । इन २७८ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम ( 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ) Jain Education International Forpivateersonal-se-only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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