SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाशिष्ठ और पातंजल योगसूत्र में भी बतलाया १. बीज-जागृत-इस भूमिका में, 'अहं' बुद्धि की गया है। जैनशास्त्रों में 'मिथ्यात्व' का फल 'संसार जागृति तो नहीं होती, किन्तु जागृति की योग्यता, बुद्धि' और 'दुःख रूप' में वर्णित है, यही बात, बीज रूप में पायी जाती है। 'योगवाशिष्ठ' में अज्ञान के फलरूप में बतलाई २. जागृत-इस भूमिका में, अहं बुद्धि, अल्पांश गई है। जैन शास्त्रों में 'मोह' को बंध/संसार का में जागृत होती है। हेतु माना गया है तो, यही बात, प्रकारान्तर से ३. महाजागृत-इसमें 'अहं बुद्धि' विशेष रूप योगवाशिष्ठ में भी कही गई है।" जैनशास्त्रों में से जागृत-'पुष्ट' होती है । यह भूमिका, मनुष्य/देव'ग्रन्थिभेद' का जैसा वर्णन है, वैसा ही वर्णन, 'योग- समूह में मानी जा सकती है। वाशिष्ठ' में भी है। योगवाशिष्ठ में 'सम्यग्ज्ञान' ४. जागृत-स्वप्न- इस भूमिका में, जागते हुए का जो लक्षण बतलाया गया है, वह जैन शास्त्रों भी भ्रम का समावेश होता है। जैसे, एक चन्द्र के 3 के अनुरूप है । जैन शास्त्रों में 'सम्यग्दर्शन' की बदले दो चन्द्र दिखाई देना, सीपी में चाँदी का भ्रम प्राप्ति, स्वभाव और बाह्यानिमित्त दो प्रकार से होना। बतलाई गयी है। योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान प्राप्ति' ५. स्वप्न-निद्रावस्था में आये स्वप्न का, का, वैसा हो क्रम सूचित किया गया है। जागने के पश्चात् भी भान होना। ६. स्वप्न-जागृत-वर्षों तक प्रारम्भ रहे हुए ___ योगवाशिष्ठ में प्रतिपादित चौदह भूमिकाएँ स्वप्न का इसमें समावेश होता है। शरीरपात हो । ये हैं-(१) 'अज्ञान' की भूमिकाएँ-बीज-जागृत, जाने पर भी इसकी परम्परा चलती रहती है। जागृत, महाजागृत, जागृत-स्वप्न, स्वप्न, स्वप्न- ७. सुषुप्तक-प्रगाढ़-निद्रा जैसी अवस्था । जागृत, और सुषुप्तक । (२) 'ज्ञान' की भूमिकाएं- इसमें 'जड़' जैसी स्थिति हो जाती है, और कर्म, शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असं- मात्र वासना रूप में रहे हुए होते हैं। सक्ति, पदार्थाभाविनी, और तूर्यगा । इनका संक्षिप्त ८. शुभेच्छा-आत्मावलोकन की वैराग्ययुक्त परिचय निम्नलिखित प्रकार है इच्छा । हाला यस्य ज्ञानात्मनो ज्ञस्य देह एवात्मभावना। ६ ज्ञप्तिहि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता । उदितेति रुषवाक्ष रिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥ मृगतृष्णाम्बुबुद्धया दिशन्ति मात्रात्मकस्वत्वसौ॥ -योगवाशिष्ठ-निर्वाणप्रकरण-पूर्वा०-स०-६ -वही, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग-११८/२३ २ अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिर- ७ अनाद्यन्तावभासात्मा परमात्मेह विद्यते । विद्या। -पातञ्जलयोगसूत्र-साधनापाद-५ इत्येकोनिश्चयः स्फारः सम्यग्ज्ञानं विदुद्धः॥ विकल्पचषकरात्मा पीतमोहासवो ह्ययम् । -वही-उपशमप्रकरण, सर्ग-७६/२ भवोच्चतालमुत्ताल प्रपञ्चमधिष्ठिति ॥ ८ अ. तन्निसर्गादधिगमाद्वा-त्त्वार्थसूत्र-अध्याय-१/३ -ज्ञानसार-मोहाष्टक ब. एकस्तावद्गुरुप्रोक्तादनुष्ठानाच्छन्न शनैः । अज्ञानात्प्रसूता यस्माज्जगत्पर्णपरम्पराः । जन्मना जन्मभिर्वापि सिद्धिदः समुदाहृतः ।। यस्मिस्तिष्ठन्ति राजन्ते विसन्ति विलसन्ति च ।। द्वितीयास्त्वात्मनवाशु किंचिद्व्युत्पन्नचेतसा । -योगवाशिष्ठ-निर्वाण-प्रकरण. स०-६ भवति ज्ञानसंप्राप्तिराकाशफलपातवत् ॥ १५ अविद्या संसृतिबंधो माया मोहो महत्तमः । -वही-उपशमप्रकरण, सर्ग-७/२, ४ कम्पितानीति नामानि यस्याः सकलवेदिभिः ।। ६ वही-उत्पत्तिप्रकरण-सर्ग-११७/२, ११, २४ ।। -योगवाशिष्ठ-उत्पत्तिप्रकरण-स०-१/२० तथा सर्ग११८/५-१५ तृतीय खण्ड :धर्म तथा दर्शन २५१ " साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Cards Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy