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________________ (२) रौद्र ध्यान- हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्रो सेवन रूपवती इन पाँच धारणाओं का चिन्तन किया । एवं अन्य भी सभी प्रकार के कलुषित कर्मों से उत्पन्न जाता है। 1 परिणाम के कारण जो चिन्तन होता है वही रौद्र (व) पदस्थ-पदस्थ ध्यान में पद के साथ सिद्ध EX ध्यान है। रौद्र ध्यान में सभी पापाचार सम्मिलित अवस्था पर भी चिन्तन किया जाता है। पदस्थ हैं । इस ध्यान के चार उपभेद भी माने गए हैं ध्यान में बैठा हुआ योगी है, अहँ तथा ॐ पद का (अ) हिंसानूबंधी, (ब) मृषानुबंधी, (स) स्तेनानुबधी ध्यान करता है. कभी पंच नमस्कार मन्त्र का ध्यान तया (द) संरक्षणानुबंधी । इस प्रकार का ध्यान करने करता है। वाला जीव कृपा के लाभ से वंचित, नीच कर्मों में लगा रहने वाला तथा पाप को ही आनंद रूप मानता (स) रूपस्थ-रूपस्थ ध्यान में अहंत की विशे षताओं पर ध्यान किया जाता है । रूपस्थ ध्यान में है । यह ध्यान नतुर्थ गुणस्थान तक रहता है। बैठा हआ योगी समवसरण में विराजमान अहंत (३) धर्मध्यान-स्त्री, पुत्र, अलकार, आभूषण परमेष्ठी का ध्यान करता है। कभी उनके सिंहासन तथा सभी प्रकार की भोग सामग्री के प्रति ममत्व तथा छत्रत्रय आदि आठ महाप्रातिहार्यों का विचार भाव इस ध्यान में कम होता चला जाता है । धीरे करता है। कभी चार घातिया कमों के नाश से धीरे आत्मचिन्तन की ओर प्रवृत्ति बढ़ती चली जाती उत्पन्न हए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, जाती है। विद्वान लोगों ने इसीलिए धर्म-ध्यान को अनन्तवीर्य इन चार आत्मगणों का चिन्तन करता आत्म-विकास का प्रथम चरण माना है । द्वादशांग है। रूप जिनवाणी, इन्द्रिय, गति, काम, योग, वेद, (द) रूपातीत-रूपातीत ध्यान में विमुक्त कषाय, संयम, ज्ञान, दर्शन, लेश्या, भव्याभव्य, आत्मा के अमर्तत्व और विशद्धत्व पर मन केन्द्रित सम्यक्त्व, सभी असन्नी, आहारक, अनाहारक इस किया जाता है। आठ कर्मों का क्षय हो जाने से प्रकार १४ मार्गण), चौदह गुणस्थान, बारह भावना, सिद्ध आत्मा के आठ गुण (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, (EO १० धर्म का चिन्तन करना धर्म ध्यान है। धर्मध्यान वीय, क्षायिक समकित, अवगाहना, सूक्ष्मत्व, अगुरु- Jg को शुक्लध्यान की भूमिका माना गया है। शुक्ल- लघुत्व) प्रकट हो जाते हैं. और इन गुणों का ही ध्यानवी जीव गुणस्थान श्रेणी चढ़ना प्रारम्भ ध्यान किया जाता है। यह ध्यान ग्यारहवें और कर देता है । धर्म ध्यान के चार भेद माने गए हैं- बारहवें गुणस्थानवी जीव को होता है, जिसके (१) आज्ञा विचय-इस ध्यान में सर्वज्ञ प्रवचन संपूर्ण कषाय उपशान्त या क्षीण हो गये हैं। रूप आज्ञा विचारी जाती है, चिन्तन करते समय धर्मध्यान के चार लक्षणजिनराज की आज्ञा को ही प्रमाण मानना आज्ञा धर्मध्यान के लक्षणों में मुख्य रूप से चार विचय है। बातें हैं(२) अपाय विचय-अविद्या और दुःखों से मुक्त (१) आज्ञा रुचि-सूत्र और अर्थ इन दोनों में होने का उपाय सोचना अपाय विचय है। श्रद्धा रखना। (३) संस्थान विचय-लोक के आकार, स्वरूप (२) निसर्ग चि-सूत्र और अर्थ में स्वाभाविक आदि का विचार करना संस्थान विचय है । संस्थान रुचि रखना । विचय के भी चार उपभेद हैं, (अ) पिंडस्थ-पिंडस्थ (३) सूत्र रुचि-आगम में रुचि रखना। ध्यान में शरीर पर विचार किया जाता है, पिंडस्थ (४) अगाढ रुचि-साधु के उपदेश में रुचि ध्यान में पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणि, तत्व- रखना। २४२ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ON Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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