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________________ - -- - - की भाषा में 'अहं ब्रह्मास्मि' रूप महावाक्य द्वारा आज भी सर्वातिशयी बना हुआ है। उनके अनुसार प्रगट किया गया है । यह योगी की पूर्ण सिद्धावस्था साधक को इन्द्रियजय, कषायजय मनःशुद्धि और है । इसे हरिभद्रसूरि ने परा दृष्टि नाम दिया है। रागद्वेषजय के लिए निरंतर प्रयत्न करना चाहिए। इस अवस्था में पहुँचने के बाद योगी की भवव्याधि एतदर्थ उन्होंने बारह भावनाओं को उद्दीप्त करने है। का क्षय हो जाता है । और वह अपनी इच्छानुसार की विधियों का विस्तार से वर्णन किया है जो निर्वाण प्राप्त कर लेता है। साधना मार्ग की पृष्ठभूमि कही जा सकती है । इस जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है हेमचन्द्र क्रम में उन्होंने समत्वबुद्धि को सर्वाधिक महत्व दिया । है। साथ ही आसन, प्राणायाम और ध्यान का ने पतञ्जलि निर्दिष्ट साधना सम्बन्धी सिद्धांतों को सम्पूर्णतया स्वीकार किया है किन्त साथ ही उन्होंने विस्तृत वर्णन किया है। यद्यपि उनकी मान्यता है। कि साधना के क्रम में प्राणायाम निरर्थक है, कष्टस्थान-स्थान पर जो अपना मौलिक चिन्तन निबद्ध किया है वह साधना के पथ के पथिकों के लिए प्रद है, और इसी कारण मुक्ति में बाधक भी है। आचार्य हेमचंद्र ने ध्यान पर सर्वाधिक बल 5 अपूर्व है। दिया है। उनके अनुसार ध्यान की साधना से पूर्व __बारह प्रकाशमय हेमचन्द्र के योगशास्त्र के साधक को ध्यान, ध्येय और उसके फल को भली प्रथम प्रकाश में ही सम्पूर्णकाल में साधना में रत जान लेना चाहिए अन्यथा ध्यान साधना में सिद्धि रहने वाले मुनियों, अंशकालीन साधकों के लिए भी की सम्भावना कम रहेगी। आचार्य हेमचन्द्र के सामान्य जीवन में व्यवहार्य साधना विधि अनसार ध्येय पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत का विवरण दिया है । प्रथम प्रकाश में वीणत भेद से मख्यतः चार प्रकार का होता है। ध्यान । साधना विधियों का विस्तार सम्पूर्ण ग्रन्थ साधना के प्रारम्भ में साधक पिण्डस्थ पदस्थ अथवा में हुआ है । इनके द्वारा निर्दिष्ट द्वादश व्रतों में रूपस्थ तीनों में से किसी ध्येय का ध्यान कर सकता अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह है। किन्तु ध्यान साधना की पूर्णता रूपातीत ध्येय पांच अणवत, दिग्विरति, भोगोपभोगमान, अनर्थ का ध्यान करने में ही है । रूपातीत ध्यान में आज्ञा दण्ड विरमण तीन गुणव्रत तथा सामायिक, देशाव विचय आदि चार प्रकार का धर्म-ध्यान तथा पृथकाशिक, पौषध और अतिथि संभाग चार शिक्षाव्रत क्त्व वितर्क आदि चार प्रकार का शुक्ल-ध्यान होता गृहस्थों के लिए ही हैं । गुणवतों में इन्होंने मदिरा है। इनका विस्तारपूर्वक विवरण आचार्य हेमचन्द्र मांस नवनीत मधु उदम्बर आदि के भक्षण का ने योगशास्त्र में दिया है। इस प्रकार हेमचन्द्र ने निषेध करते हुए रात्रि भोजन का भी निषेध किया योगशास्त्र में साधना के व्यावहारिक पक्ष का विस्तार है। गृहस्थों को भी अपनी आध्यात्मिक साधना से से वर्णन करके अन्त में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट कभी विरत नहीं होना चाहिए यह मानकर इन्होंने सुलीन इन चित्तभेदों तथा बहिरात्मा, अन्तरात्मा ब्राह्ममहत में जागरण से लेकर रात्रि तक की दिन- और परमात्मा नाम से आत्म-तत्व का दार्शनिक चर्या का भी स्पष्ट वर्णन किया है जिससे वे भी विवेचन भी किया है। मोक्षपथ के पथिक बने रहें। साधना के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र के योग विषयक विवेचन की | यह निर्देश सर्वप्रथम आचार्य हेमचन्द्र ने ही दिया तलना यदि हम पतञ्जलि से करना चाहे तो हमेंEOS विदित होता है कि पतञ्जलि ने योग सूत्रों में __सामान्य (मुनि) साधकों के लिए भी आचार्य साधना पक्ष का संकेत मात्र किया है एवं दार्शनिक हेमचन्द्रसूरि का योगशास्त्र अपनी मौलिकता से तथा मनोवैज्ञानिक पक्ष का अत्यन्त गम्भीरता से तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन --- o साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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