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________________ में जैन आचार्यों के योगविद्या एक व्यावहारिक विद्या है, साधना की विद्या है, जिसके द्वारा अपने में अन्तनिहित अन्नमय, मनोमय, प्राणमय और आनन्दमय कोशों में अनादि काल से अन्तनिहित शक्तियों को जागृत करके जीवन की अल्पताओं को और उसके कारण प्राप्त पीड़ाओं को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है और उसके फलस्वरूप आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक इन विविध दुःखों की । आत्यन्तिक निवृत्ति रूप मोक्ष को, कैवल्यभाव को, प्राप्त किया जाता है । इस साधना में त्रिविध ताप की आत्यन्तिक निवृत्ति रूप मोक्ष की भारतीय योग परम्परा प्राप्ति जहाँ साधना रूपी यात्रा का चरम लक्ष्य है, अन्तिम पड़ाव है, वहीं शारीरिक और मानसिक निर्बलताओं की निवृत्ति, व्याधि एवं जरा की निवृत्ति आदि प्रारम्भिक और मध्यवर्ती पड़ाव है। योगदान का मल्यांकन जिस प्रकार किसी मन्दिर अथवा भवन के मध्य में बैठे हुए दस पन्द्रह-बीस या सौ-दो-सौ-चार सौ अथवा हजार व्यक्ति क्रमशः अपने का प्रास्था स्थान से उठकर द्वार की लघु यात्रा के लिए अथवा किसी अन्य मन्दिर भवन अथवा तीर्थ नदी पर्वत आदि की दीर्घ यात्रा के लिए प्रस्तुत हों, तो प्रत्येक व्यक्ति के चरण चिन्ह पृथक्-पृथक् ही होंगे, भले ही प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी यात्रा किसी एक नियत स्थल पर खड़े होकर ही क्यों न प्रारम्भ की हो। चरण चिन्हों की यह भिन्नता आकस्मिक नहीं, बल्कि अनिवार्य है। इसके लिए, भिन्नता को दूर करने के लिए चाहे जितना प्रयत्न किया जाए भिन्नता अवश्य ही रहेगी। हां इस २ भिन्नता को दूर करने हेतु प्रयत्न करने पर स्खलन हो सकता है, गति तो मन्द होगी और चरण चिन्ह की भिन्नता की निवृत्ति के ही लक्ष्य -डॉ. ब्रह्ममित्र अवस्थी बन जाने से मूल लक्ष्य के भी तिरोहित होने की सम्भावना हो सकती है। ठीक इसी प्रकार विविध तापों से सन्तप्त साधक की साधना यात्रा निदेशक में भी लक्ष्य एक रहने पर भो साधना की विधि में, प्रक्रिया में कुछ न - स्वामी केशवानन्द योग संस्थान कुछ अन्तर का होना अत्यन्त स्वाभाविक ही है । साधक की शारीरिक और मानसिक स्थिति, उसकी तैयारी, बौद्धिक स्तर, पूर्वतन संस्कार, ८/३ रूपनगर, दिल्ली ११०००७ वातावरण आदि ऐसे अनेक हेतु हैं, जिनके कारण साधना की विधि में अन्तर हो सकता है कई बार उद्देश्य भेद अर्थात् चरम लक्ष्य में अन्तर । भी साधना के मार्ग में कुछ या बहुत अन्तर ला सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन की पूर्णता के उद्देश्य से की जाने वाली साधना पद्धतियाँ अनेक हो सकती हैं, व्यक्ति आदि के भेद से अनन्त हो सकती हैं यदि यह कहा जाए तो अनुचित न होगा। और पदक्रम में अन्तर रहने पर भी सभी एक अभीष्ट पर निस्सन्देह पहुँचते हैं। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन ) 2 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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