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________________ से विशेषित है । संदर्शनशास्त्र में सम् उपसर्ग इसी सवप्रथम इन लक्षणों में 'इद्ध' शब्द की व्याख्या सम्यक्त्व का द्योतक है। वह संदर्शनशास्त्र को अपेक्षित है। कोशकारों ने इद्ध का अर्थ प्रज्वलित सम्यक्दर्शनशास्त्र, सम्यक्ज्ञानशास्त्र तथा सम्यक्- या प्रकाशित किया है यह इन्ध धातु से निष्पन्न चारित्रशास्त्र बनाता है। इस कारण सम्यक्त्व या हुआ है। इसी से ईंधन शब्द बना है जो जलाने की प्रमात्व उसका प्रमुख लक्षण है। संदर्शनशास्त्र सामग्री या वस्तु के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस मूलतः प्रमाशास्त्र है। ___प्रकार 'इद्ध' शब्द का अर्थ स्पष्ट हो जाने पर प्रमा - अब प्रश्न उठता है कि संदर्शनशास्त्र में प्रमा की उपर्युक्त परिभाषाएँ इस प्रकार रखी जा सकती ) किसे कहते हैं ? प्रमा ज्ञान है। ज्ञान सदैव सत्य होता है उसके विशेषण के रूप में सत्य का प्रयोग (१) बोध से प्रज्वलित वृत्ति प्रमा है। करना गलत है। 'सत्यज्ञान' ऐसी पदावली का जो वृत्ति से प्रज्वलित बोध प्रमा है । प्रयोग करते हैं वे वस्तुतः ज्ञान शब्द के अर्थ से अन- प्रथम लक्षण के अनुसार वृत्ति-ज्ञान तभी प्रमा 19 भिज्ञ हैं । प्रमा ज्ञान है और ज्ञान प्रमा है । पाश्चात्य होता है जब वह बोध से प्रज्वलित हो अर्थात् बोध दर्शन के प्रभाव के कारण उसे हम सत्यता भी कह से व्याप्त वृत्ति प्रमा है। यदि वृत्ति बोध से व्याप्ती सकते हैं । सत्यता ज्ञान का गुण नहीं है किन्तु स्वयं नहीं है तो वह अप्रमा है। इसी प्रकार दूसरे लक्षण ज्ञान है, वह ज्ञान भी आकारता-प्रकारता है। के अनुसार वृत्ति से व्याप्त बोध प्रमा है और जो पुनश्च जैसा कि ऊपर कहा गया है जान भी बाध वृत्ति से व्याप्त नहीं है वह अप्रमा है। इसी वस्तुतः संदर्शन का एक विशेष घटक है। यह ज्ञान प्रकार दूसरे लक्षण के अनुसार वृत्ति से व्याप्त बोध बोध-रूप तथा वृत्ति-रूप से द्विविध है। इसको प्रमा है और जो बोध-वृत्ति से व्याप्त नहीं है वह अंग्रेज दार्शनिक जार्ज बर्कले ने बोध (नोशन) द्वारा अप्रमा है। यहाँ व्याप्य-व्यापक भाव की व्याख्या अपेक्षित ज्ञान तथा वृत्ति (आइडिया) द्वारा ज्ञान कहा था _ है। दोनों लक्षणों को एक साथ देखने पर ज्ञात किन्तु वह अनुभववाद से इतना प्रभावित था कि । । होता है कि वृत्तिव्याप्य बोध अथवा बोध-व्याप्य वह इन दोनों प्रकारों का एक-दूसरे से मेलापक न वृत्ति प्रमा है अर्थात बोध तथा वत्ति दोनों में परकर सका। उसकी सूझ इस कारण फलितार्थ नहीं स्पर व्याप्य-व्यापकभाव है। जैसे बोध व्यापक है हुई। बर्कले मात्र वृत्ति-ज्ञान के विश्लेषण तक __ और वृत्तिव्याप्य है, वैसे वृत्ति भी व्यापक है और सीमित रह गये। वे यह नहीं समझ पाये कि वृत्ति बोध व्याप्य है। ऐसा होने पर अनन्यता सम्बन्ध ज्ञान के प्रमापकत्व के लिए बोध की नितांत आव- की सिद्धि होती है किन्तु बोध और वृत्ति में परस्पर श्यकता है। उनसे अधिक गम्भीर विश्लेषणकर्ता अनन्यता सम्बन्ध नहीं है । कारण दोनों में महान् अठारहवीं शती के अद्वैत वेदान्ती महादेवानन्द अन्तर है। बोध-अखण्ड है. वत्ति खण्डित है। बोध सरस्वती थे जिन्होंने वृत्तिज्ञान की प्रामाणिकता में अव्यभिचरित है, वत्ति व्यभिचरित है। बोध स्वयंबोध की अनिवार्यता पर बल दिया है। उन्होंने सिद्ध या सदावर्तमानस्वरूप हैं, वृत्ति आगन्तुक या अपने ग्रन्थ 'अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ' में जो उनके स्वर- आगमापायी है। बोध वत्ति-व्याप्य है, किन्तु फलचित तत्त्वानुसन्धान की स्वोपज्ञटीका है-कहते हैं व्याप्य नहीं है, परन्तु वत्ति फल-व्याप्य भी है । वह कि प्रमा का लक्षण निम्न दो प्रकारों से किया जा मात्र बोध-व्याप्य नहीं है । अतः जहाँ तक वृत्ति की .. सकता है फलव्याप्यता के प्रामाण्य का प्रश्न है. वहाँ तक ) (१) बोधेद्धा वृत्तिः प्रमा उपर्युक्त लक्षण उस पर लागू नहीं होता। इसका (२) वृत्तीद्धो बोधः प्रमा स्पष्टार्थ यह है-जब हमें किसो घट का ज्ञान होता २३० तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Forvete Personal use only www.jainelibrary.org C Jain Education International
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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