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________________ RE वैज्ञानिक सापेक्षवाद और स्याद्वाद इन दोनों तत्त्वों का समान समावेश है। इस सारे || जान के इस व्यापक परिप्रेक्ष्य से एक बात यह विवेचन से एक अन्य सत्य यह प्रकट होता है कि स्पष्ट होती है कि विज्ञान और जैदर्शन का सम्बन्ध सत्, द्रव्य, पृद्गल, यथार्थ-सब समान अर्थ देने वाले 'सापेक्षवाद' की आधारभूमि पर माना जा सकता शब्द हैं । इसी से जैन आचार्यों ने 'द्रव्य ही सत् है (0) हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि स्याद्वाद की और सत् ही द्रव्य है' जैसी ताकिक प्रस्थापनाओं को र मान्यताओं का संकेत हमें आइंस्टाइन के सापेक्ष का निर्देशित किया। उमास्वाति नामक जैन आचार्य ने वादी सिद्धान्त में प्राप्त होता है। यह समानता इस यहाँ तक माना कि 'काल भी द्रव्य का रूप है'। तथ्य की ओर संकेत करती है कि जैन मनीषा में जो बरबस आधुनिक कण-भौतिकी (पार्टिकिल विश्व के यथार्थ के प्रति एक स्वस्थ आग्रह था। फिजिक्स) की इस महत्वपूर्ण प्रस्थापना की ओर - विश्व और प्रकृति का रहस्य 'सम्बन्धों' पर आधा- ध्यान आकर्षित करता हैं कि काल और दिक् भी रित है जिन्हें हम निरपेक्ष (एब्सल्युट) प्रत्ययों के पदार्थ के रूपांतरण है और यह रूपान्तरण पदार्थ के AR द्वारा कदाचित् हृदयंगम करने में असमर्थ रहेंगे। तात्विक रूप की ओर भी संकेत करता है। पदार्थ ! द्रव्य या पुद्गल की सारी अवधारणा इसी सापेक्ष या द्रव्य का यह रूपय या द्रव्य का यह रूप यथार्थवादी अधिक है क्योंकि तत्व पर आधारित हैं। वर्तमान भौतिकी तथा गणि जैन-दर्शन भेद को उतना ही महत्व देता है, जितना तीय प्रत्ययों के द्वारा 'द्रव्य' (मैटर) का जो भी रूप अद्वैतवादी अभेद को । पाश्चात्य दार्शनिक ब्रडले ने स्पष्ट होता है, वह कई अर्थों में वैज्ञानिक अनुसंधान भी भेद को एक आवश्यक तत्त्व माना है जिसके में प्राप्त निष्कर्षों से समानता रखता है। द्वारा हम 'सत्' के सही रूप का परिज्ञान कर सकते मला विकासवाद और जीव-अजीव की धारणाएँ विज्ञान का एक प्रमुख सिद्धान्त विकासवाद के द्रव्य की रूपान्तरण प्रक्रिया तथा भेद जो हमें विश्व स्वरूप पर एक 'दृष्टि' प्रदान करता जैन-दर्शन की एक महत्वपूर्ण मान्यता यह है है। डाविन आदि विकासवादियों ने जैव और अजव कि द्रव्य-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त है । यदि (ऑरगैनिक एण्ड इन-ऑरगैनिक) के सापेक्ष सम्बन्ध विश्लेषण करके देखा जाये तो द्रव्य की अवधारणा को मानते हुए उन्हें एक क्रमागत रूप में स्वीकार में एक नित्यता का भान है जो न कभी कष्ट होता किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि जैव (चेतन) है और न नया उत्पन्न होता है । उत्पाद और व्यय और अजैव (जड़) के बीच शून्य नहीं है, पर दोनों के बीच एक स्थिरता रहती है (या तुल्यभारिता/15 के बीच एक ऐसा सम्बन्ध है जो दोनों के 'सत्' स्व- बैलेंस) रहती है जिसे एक पारिभाषिक शब्द ध्रौव्य रूप के प्रति समान महत्व की ओर संकेत करता है। के द्वारा इंगित किया गया है। मेरे विचार से ये NDS जैन-दर्शन में जीव और अजीव की धारणाएँ विज्ञान सभी दशाएँ द्रव्य की गतिशीलता और सजनशीलता में प्राप्त उपर्युक्त जैव और अजैव के समान हैं और का परिचय देती हैं । विज्ञान के क्षेत्र में फेड हॉयल PM ये दोनों धारणाएँ सत्य और यथार्थ हैं। यहाँ पर ने पदार्थ का विश्लेषण करते हुए "पृष्ठभूमि यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वेदांत तथा पदार्थ" की कल्पना की है जिससे पदार्थ उत्पन्न चार्वाक दर्शन के समान यहाँ पर द्रव्य (मैटर) चेतन होता है और फिर, उसी में विलीन हो जाता हैया जड़ नहीं है, पर द्रव्य (पुद्गल) की भावना में यह क्रम निरन्तर चला करता है"। इस प्रकार " १ जैन-दर्शन डा० मोहन लाल मेहता, पृष्ठ १२४ ३ दि नेचर आफ यूनीवर्स, फ्रेड हॉयल, पृष्ठ ४५ २ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, डा० हजारीलाल जैन, पृष्ठ १८ २२५ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International PEOrprivate Personalise only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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