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________________ CHEXECE विभिन्न दर्शनों में अनेक बातें भिन्न-भिन्न संदर्भो भी यही दिखाई पड़ रहा है। इस प्रकार जैन-दर्शन में प्राप्त होती हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रतीत होती हैं, का अन्तस्थल और बाह्यरूप पूर्णतः निर्मल और किन्तु यदि उनका संयोजन किया जाय, तो यह निष्कपट हो जाता है । यह तभी सम्भव होता है, पूर्णतः भासित होगा कि उन भिन्न-भिन्न सन्दर्भो के जब यह जान लिया जाता है कि एक भाव है, एक द्वारा एक अभेद का उपस्थापन होता है । यह अभेद सत्ता है, एक तत्त्व है, और उसी के सभी विलास ही हमारा लक्ष्य है, क्योंकि उसी से ज्ञान का वास्त- हैं। वर्तमान परिस्थितियों में यह परम आवश्यक विक स्वरूप प्रकट होता है। जो भेद है, वह दृष्टि हो गया है कि एक को जानो, भेद को नष्ट करो। में भेद उत्पन्न करता है और वस्तु के स्वरूप पर जिससे हमारा देश अखण्डित रहेगा, वह अभेद की आवरण डाल देता है । इसी आवरण को हटाना है दृष्टि है । (9, यह अभेददृष्टि से दूर होता है। इसका उन्मीलन अद्वत-वेदान्त और जैन-दर्शन में किया गया है। जब-जब समाज में अनेक वादों का प्रचार हुआ या विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि जैनदर्शन है, तब-तब विषमताएँ उत्पन्न हुई हैं और मनुष्य का एक परम तत्त्व की खोज में लगा हुआ है। प्रक्रि- माग धुधला हो गया है। उस परिस्थिति में कोई दायाओं के भेद के कारण भेद दिखाई पड़ रहा है। ऐसा आचार्य उत्पन्न होता है, जो अभेद-दृष्टि का यह भेद साधनागत भेद है, लक्ष्य का भेद नहीं। उपस्थापन करता है। इससे मानव अपने निश्चित उस लक्ष्य की खोज करनी है, जो एक है। अनेक लक्ष्य को देख पाता है और उचित मार्ग पर चल (3) की दृष्टि भ्रान्ति दृष्टि है। असत का अपलाप पड़ता है। शंकराचार्य के पहले अनेक वाद प्रचलित थे करना है, क्योंकि उसका कोई भाव नहीं है। का और मनुष्य निश्चित नहीं कर पाता था कि उसका जानना है उस सत् को, जिसका अभाव नहीं है। । मार्ग क्या है। शंकराचार्य ने स्थिति की गम्भीरता को पहचाना और अद्वैत का उपदेश दिया। इससे का जैनदर्शन एक को जानने के लिए जिस पद्धति देश का कल्याण हआ, अखण्ड भारत का स्वरूप (O) का निर्देश करता है, वह भी विविक्त मार्ग है। सामने आया तथा सांस्कृतिक परम्परा की व्याख्या केवल वही मार्ग है, ऐसी बात नहीं है । जैनदर्शन में का मार्ग प्रशस्त हआ। आज शंकराचार्य के समय विचार की यह उदात्तता है कि वह दूसरे मार्गों के की परिस्थिति विद्यमान है। समाज में अनेक वाद मा भी महत्व को स्वीकार करता है और यह केवल प्रचलित हो रहे हैं और मनुष्य भटक रहा है। इस स्थूल विचार के धरातल पर नहीं है । इसके मूल में समय समाज को आवश्यकता है अभेद की दृष्टि चित्त के धरातल पर विद्यमान अहिंसा है। यहीं से की। जैनदर्शन में जिस अभेद-दृष्टि की प्रतिष्ठा निकलती है विचार की उदात्तता और सिद्धान्तों के मिलती है, उसकी निभ्रान्त अवतारणा होनी ERE(गर्भ में पलती है प्रेम की भावना । न केवल विचार चाहिए। इससे देश का कल्याण हो सकेगा और मके क्षेत्र में यह औदार्य है, अपितु व्यवहार के क्षेत्र में विश्व की मानवता को उचित प्रकाश मिल सकेगा। 2G -' यतनाशील (जागरूक) साधक का अल्प, कर्मबन्ध अल्पतर होता जाता है और निर्जरा तीव्र, तीव्रतर । अतः वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है। --निशीथ भाष्य ३३३५ १८४ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ CA Jain Education International -orrivate personalitice-Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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