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________________ जैनदर्शन में कहा गया है कि वस्त अनन्त धर्मों है कि हम उसे पूर्णतः जानते हैं, उसे हम पूर्णतः | न वाली होती है-अनन्तधर्मकं वस्तु । यह एक सूत्र है, नहीं जानते । आज किसी के साथ मैत्री है, तो जिससे वस्तु के स्वरूप को सरलता से समझा जा कल शत्रुता । आज उसके सम्बन्ध से हमारा लाभ सकता है । जब हम किसी वस्तु के भावात्मक होता है, तो कल हानि। हम किसी से वञ्चित धर्मों के सम्बन्ध में विचार करते हैं, तब हम देखते होते हैं, किन्तु वञ्चना के बाद भी हम पुनः उसके हैं कि उस वस्तु के भावात्मक धर्मों की संख्या कम सम्पर्क में आते हैं और धोखा खाते हैं । यह क्यों - है और जब अभावात्मक धर्मों के सम्बन्ध में होता है ? क्या हम इसके कारणों पर विचार विचार करते हैं, तब यह स्पष्ट होता है कि अभा- करते हैं ? व्यक्ति तो सामान्य रूप से यही सम- VS वात्मक धर्म संख्या में बहुत अधिक हैं । इस प्रकार झता है कि किसी व्यक्ति का इतना काम किया, एक ही वस्तु के अनन्त धर्म हो जाते हैं। समय के फिर भी वह धोखा देता है । इसके पीछे रहस्य यह अनुसार धर्मों में परिवर्तन भी होता रहता है, है कि हम उस व्यक्ति को नहीं समझते, फलतः नवीन धर्मों की उत्पत्ति भी होती रहती है । एक हम दुःखित होते हैं । मूल बात तो यह है कि वस्तु ही मनुष्य की अवस्था आदि के क्रम से अनेक के स्वरूप को ठीक से जाना जाय । जब हम किसी विशेषताएँ होती हैं और इन विशेषताओं में समय- महापुरुष के जीवन के सम्बन्ध में विचार करते हैं, समय पर परिवर्तन भी होता रहता है। किसी तो देखते हैं कि वे व्यवहारों में इस प्रकार दुःखित व्यक्ति की किसी स्थिति में प्रशंसा होती है और नहीं होते, जिस प्रकार हम होते हैं । इसका कारण किसी स्थिति में निन्दा । यह धर्मों में परिवर्तन के यह है कि वे वस्तु अथवा व्यक्ति के स्वरूप को कारण होता है। ठीक-ठीक जानते हैं, अतः व्यवहार में किसी भी __ हमारे सामने प्रश्न है कि किसी वस्तु को ठीक प्रकार सन्देह नहीं रहता और न तो आसक्ति ठीक जाना जाय । हम यह भी जानते हैं कि वस्तु । रहती है, अतः व्यवहार से किसी भी प्रकार दुःखित के अनन्त धर्म हैं, जो भावात्मक तथा अभावात्मक होने की बात नहीं उठती। सामान्य व्यक्ति वस्तु के स्वरूप को नहीं जानता, अतः दुःखित होता है। दोनों हैं । जब हम वस्तु को जानेंगे, तो अनन्त धर्मों को जानेंगे, उसके सारे सम्बन्धों को जानेंगे। वस्तु स्वरूप से सत् है, किन्तु पर रूप से असत्, पूरे जगत् के सन्दर्भ में उसे रखकर उस पर विचार अतः वस्तु सद्सदात्मक हैकरेंगे । वह वस्तु अकेली नहीं होगी, वह जगत् की सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च ।। अगणित वस्तुओं के सन्दर्भ में होगी। जब उसका अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ।। मूल्याङ्कन होगा, तो अन्य वस्तुओं के स्वरूप का जब किसी घट के सम्बन्ध में विचार उठता है, भी मूल्याङ्कन होगा । 'अनन्तधर्मकं वस्तु' का यही । यही कहा जायगा कि उस घट में घटव्यतिरिक्त रहस्य है। इसके पीछे बहुत बड़ा भाव छिपा पदार्थो का अभाव है। घट के ज्ञान के लिए घट के हुआ है। स्वरूप का ज्ञान आवश्यक है और साथ ही घटव्यतिजब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को पूर्णतः जान रिक्त पदार्थों का भी ज्ञान आवश्यक है, अतः घट लेता है, तब यह कहा जा सकता है कि सभी को जान लेने पर अन्य पदार्थों का भी ज्ञान हो वस्तुओं को जान लेता है। कोई सामान्य व्यक्ति जाता है। आगम में कहा गया है कि जो एक को इस स्थिति में नहीं पहुँच सकता। हम प्रतिदिन जान लेता है, वह सभी को जान लेता है और जो देखते हैं कि जिसके सम्बन्ध में हमारा यह विचार सभी को जान लेता है, वह एक को जान लेता है तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ On Jain Education International RowateDersonal lice Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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