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________________ स्वकीय -साहवी दिव्यप्रभा (एम. ए., पी-एच. डी.) "GYAN जैनधर्म में साधना के दृष्टिकोण से लिंग भेद ज्येष्ठ होकर अनुजों को वन्दन ! नहीं । उनके मन १ को महत्व नहीं दिया गया है । यहाँ स्त्री और पुरुष में यही अहं था, जो मिथ्या था । ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों को ही समान अधिकार प्राप्त हैं। इस संबंध ने उनके निकट आकर गुहार लगाई, हे भाई! गज, र में साम्प्रदायिक मतभेद होते हुए भी जैन साहित्य से उतरो। जब तक आप गज से नहीं उतरेंगे तब में ऐसी महान नारियों का उल्लेख मिलता है तक आपको केवलज्ञान नहीं हो पायेगा। बहिनों जिन्होंने संयम पथ पर बढ़ते हुए आत्म-कल्याण के ये शब्द जब बाहुबली के कर्णकुहरों में पड़े तो वे किया। आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की चिन्तन में डूब गये । गज ! यहाँ वन में गज कहाँ माता मरुदेवी ने तो द्रव्य संयम भी ग्रहण नहीं है ? और इसी अनुक्रम में उनके चिन्तन ने मोड़ किया था पर भाव संयम के कारण उन्हें मुक्ति मिल लिया। हाँ, मैं मानरूपी गज पर आरूढ़ हूँ। मेरा गई । माता मरुदेवी के पश्चात् भगवान ऋषभदेव यह मान मिथ्या है, वे मेरे अनुज हैं तो क्या हुआ, की दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी का विवरण संयम में तो ज्येष्ठ हैं और ज्येष्ठ होने के नाते मुझे मिलता है। सांसारिक अवस्था में उनकी उप- उनकी वन्दना करनी चाहिये। बस ! यह विचार लब्धियों की चर्चा न करते हुए इतना ही बताना आते ही बाहुबली अपने भाइयों के समीप वन्दनार्थ उचित होगा कि इन दोनों बहिनों ने संयम व्रत जाने के हेतु अपना कदम बढ़ाते हैं कि उन्हें केवलअंगीकार कर स्वयं का तो कल्याण किया ही साथ ज्ञान हो जाता है । यदि ब्राह्मी और सुन्दरी उन्हें ही उन्होंने अपने भ्राता घोर तपस्वी बाहुबली को सचेत नहीं करतीं, उनके मिथ्या भ्रम की ओर भी वास्तविकता का बोध कराया था। ध्यान आकर्षित नहीं करातीं, तो क्या उन्हें केवलबाहबली ने दीक्षा व्रत अंगीकार करने के ज्ञान हो पाता? पश्चात् घोर तपश्चर्या आरम्भ कर दी। उनकी श्वेताम्बर आगमों के अनुसार उन्नीसवें तीर्थयह तपश्चर्या चरम सीमा पर पहुँच गई किन्तु कर भगवती मल्ली नारी थी। भगवती मल्ली के फिर भी उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। उदाहरण से स्पष्ट है कि नारी अपनी साधना इसका कारण यह था कि उनके मन में इस बात शक्ति से तीर्थंकर जैसा सर्वोच्च पद भी प्राप्त कर को लेकर उथल-पुथल मची हुई थी कि संयम में सकती है। यह नारी की साधना का उत्कृष्ट उदाज्येष्ठ अपने लघु भ्राताओं को वन्दन कैसे करूं? हरण है। 0 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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