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________________ "संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानीपूर्वक चलना है ।" 'संलेखना को एक दृष्टि से स्वेच्छा-मृत्यु कहा जा सकता है। जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है तब साधक को शरीर और अन्य पदार्थ में बन्धन की अनुभूति होती है । वह बन्धन को समझकर उससे मुक्त बनना चाहता है । "" 'संलेखना को मृत्यु पर विजय पाने की कला के रूप में निरूपित करते हुए उपाचार्य ने लिखा है - ' संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है । वह जीवन-शुद्धि और मरण-शुद्धि की एक प्रक्रिया है । जिस साधक ने मदन के मद को गलित कर दिया है जो परिग्रह पंक से मुक्त हो चुका है, सदा सर्वदा आत्म-चिन्तन में लीन रहता है, वही व्यक्ति उस मार्ग को अपनाता है । संलेखना में सामान्य मनोबल वाला साधक, विशिष्ट मनोबल प्राप्त करता है । उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं, समाधि का कारण है ।" 'संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम संलेखना का लक्षण बताया है और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का । आचार्य शिवकोटि ने 'सल्लेखना' और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। आचार्य उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के लिये संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का भेद मिटा दिया है। आचार्य कुंदकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिये मानते हैं और सलेखना गृहस्थ के लिये । इस विषय पर और अधिक चर्चा न करते हुए केवल संलेखना की व्याख्या और संलेखना का समय तथा इसके अधिकारी की चर्चा कर प्रकरण को यहीं समाप्त कर दिया जायेगा । 'संलेखना 'सत्' और 'लेखना' इन दोनों के संयोग से बना है । सत् का अर्थ है सम्यक् और लेखना का अर्थ है कृश करना। सम्यक् प्रकार से कृश करना। जैन दृष्टि से काय और कषाय को कर्म बन्धन का मूल कारण माना है इसलिए उसे कृश करना संलेखना है । 4 "आचार्य अभयदेव ने स्थानांगवृत्ति में संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखा है-जिस क्रिया के द्वारा शरीर एवं कषाय को दुर्बल और कृश किया जाता है वह 'संलेखना ' है । ज्ञातासूत्र की वृत्ति में भी इसी अर्थ को स्वीकार किया है। प्रवचनसारोद्धार में - शास्त्र में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि को संलेखना कहा है । निशीथचूर्णि व अन्य स्थलों पर संलेखना का अर्थ छीलना -- कृश करना किया है । शरीर को कृश करना द्रव्य-संलेखना है और कषाय को कृश करना भाव-संलेखना है ।"5 संलेखना के समय और अधिकारी का वर्णन करते हुए उपाचार्यश्री ने लिखा है - 'आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है प्रतीकार रहित असाध्य दशा को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा व रुग्ण स्थिति में या अन्य कारण के उपस्थित होने पर साधक संलेखना करता है ।" मूलाराधना में संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए सात मुख्य कारण दिये हैं(१) दुश्चिकित्स्य व्याधि - संयम को परित्याग किये बिना जिस व्याधि का उपचार करना सभ्भव नहीं हो, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर । १. जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ६६८ ३. वही, ५. वही, १० ६६६ पृ० ७०० द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन Jain Education International " " را " २. जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ० ६६६ । ४. वही, पृ० ७००-७०१ । ६. वही, पृ० ७०२-७०३ । साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only १४७ www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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