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________________ उत्कृष्ट साधना का निरूपण है । हजारों साधकों के गौरवपूर्ण नाम गिनाये जा सकते हैं । इसी तरह वृद्ध व्यक्तियों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की है । श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण को प्रव्रज्या प्रदान की थी । आचार्य जम्बू द्वारा उनके पिता श्रेष्ठी ऋषभदत्त को और आचार्य आर्यरक्षित द्वारा अपने पिता सोमदेव की प्रब्रज्या देने का उल्लेख मिलता 1 दशवेकालिक में स्पष्ट कहा है- जीवन के संध्याकाल में दीक्षा लेकर भी कितने ही व्यक्ति अपनी तेजस्वी साधना से वर्ग और अपवर्ग को प्राप्त कर सकते हैं ।" इस उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि आयु का बन्धन कोई विशेष महत्व नहीं रखता है । आठ वर्ष के पश्चात् दीक्षा देना और लेना शास्त्र सम्मत है । श्री कन्हैयालाल जी द्वारा उत्पन्न व्यवधान तो उनके मोह के कारण था । मोह ने संसार के प्राणियों को घेर रखा है । प्रत्येक को किसी-न-किसी का मोह है । किसी को परिवार का मोह तो किसी को धन-सम्पत्ति का । जब तक यह मोह का बन्धन रहता है तब तक कुछ भी नहीं हो सकता । यही कारण है कि तीर्थंकर भगवंतों ने सबसे पहले मोह पर ही प्रहार किया है । जब तक मोह का क्षय नहीं हो जाता तब तक ज्ञान, दर्शन और चारित्र सम्यक् नहीं होते और अन्य कर्म भी क्षीण नहीं होते हैं । सभो जानते हैं कि गणधर गौतम का भगवान महावीर के प्रति सर्वाधिक मोह था और यही मोह उनके केवल ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा था। जैसे ही उनका मोह बन्धन टूटा वैसे ही वे केवलज्ञानी हो गये । मोह की अदृश्य गाँठ बहुत अधिक मजबूत होती है । इसे तोड़ने के लिये कठोर साधना करनी पड़ती है । इसी मोह के जाल में श्री कन्हैयालाल जी फसे हुए थे । भानजी नजर पर उनका वात्सल्य ममत्व अधिक था । बहिन पर भी असीम स्नेह था । वे नहीं चाहते थे कि ये दीक्षा लेकर साध्वी बने । वे इन्हें अपने पास ही रखना चाहते थे और नजर का विवाह धूमधाम से कर उसका घर बसाना चाहते थे । यहाँ उनकी भावना के प्रतिकूल हो रहा था । इसलिए उन्होंने बाधा उत्पन्न कर दी । ममत्व रखने वाला व्यक्ति यह भूल जाता है कि वह जो कुछ समझ रहा है, वह सब मिथ्या है । दूसरे तो क्या उसका अपना शरीर भी उसका नहीं है । वह मैं ( आत्मा ) और शरीर में अन्तर नहीं कर पाता है । जब उसका यह भ्रम दूर होता है तब वह वास्तविकता को समझता है । किन्तु यह समझ पाना / आत्मसात कर पाना बड़ा कठिन होता है। कई एक तो ऐसे होते हैं जो वास्तविकता को जानते हुए भी जान-बूझकर मिथ्यावाद में जीते हैं । इसी मिथ्या मोह में कन्हैयालाल जी भी जी रहे थे । महासती श्री सोहन कुँवर जी म० सा० बड़े धीर-वीर - गम्भोर थे । उन्होंने परिस्थिति को देखा एवं विचार किया । उन्होंने सभी प्रकार से इस समस्या पर विचार किया । इस सम्बन्ध से उन्होंने प्रमुख श्रावकों से भी विचार-विमर्श किया। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यद्यपि दीक्षा प्रदान करने के लिये परिवारवालों की आज्ञा हमारे पास है तथापि इस समय परिस्थिति अनुकूल नहीं है । किन्तु इस शुभ कार्य को टालना भी उचित नहीं है । क्योंकि इस समय सभी तैयारियाँ हो चुकी हैं। अतः दीक्षा का दूसरा मुहुर्त भी निकलवा लिया। दूसरा मुहूर्तं निकला फाल्गुन शुक्ला दशमी । पहले मुहूर्त के भी पूर्व । श्रावकों की सहमति से यह निर्णय हुआ कि अनावश्यक विलम्ब करने में कोई सार नहीं है । वरन् कुछ अन्य सम १ जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप पृष्ठ ४४४ से ४४६ द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन aiducation Internationa साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Private & Personal Use Only १३३ www.jainerbrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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