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________________ %3 -सह 'ओसिया' से मानी जाता है आर इसके लिए एक कथा भी प्रचलित है। उसका विवरण देना यहाँ प्रासगिक नहीं है । कोठारी गोत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में बताया जाता है कि राठौड़ रावजुड़ा ने ठाकरसी नामक एक जैन ओसवाल को अपने कोषालय का प्रभारी/कोठारी नियुक्त किया था। इसके पश्चात् ठाकरसी के उत्तराधिकारी अपने नाम के साथ कोठारी पुकारे जाने लगे । और इस प्रकार 'कोठारी' र नाम प्रचलित हो गया। परिवार-देलवाड़ा में श्री इन्दरमल जी कोठारी एक धर्मनिष्ठ श्रावक था। उनकी धर्मपत्नी सौभाग्यवती माणकबाई धर्मपरायणा और पतिपरायणा सन्नारी थी। उनके दो पुत्र-गणेशमल जी और मा शेषमल जी थे तथा एक पुत्री सुन्दरबाई थी। गणेशमल जी होनहार और मेधावी थे। युवा होने पर उनका विवाह उदयपुर निवासी सेठ हीरालाल जी सियाल की सुपुत्री सोहनबाई के साथ हुआ । सेठ श्री हीरालाल जी के तीन पुत्र एवं तोन पुत्रियाँ-भंवरवाल जी, कन्हैयालाल जी, एवं फतहलाल जी तथा मोहनबाई, सोहनबाई और बग्गाबाई थीं। सोहनबाई रूप-लावण्य और गुण दोनों में विशिष्ट थीं साथ ही धार्मिक संस्कारों से भी परिपूर्ण थीं। गणेशमलजी स्वभाव से अत्यन्त कोमल, सरल और विनम्र थे। सरलता की तो वे साक्षात् प्रतिमा थे। सौभाग्य से यह भी संयोग ही था कि उनकी धर्मपत्नी सोहनबाई भी परम विवेकवती थीं। पति सेवा ही उनके जीवन का आदर्श था। सामाजिक मर्यादा, पारिवारिक शील-शिष्टता और लोकलाज का वे सदैव ध्यान रखती थीं।। पति और पत्नी का पारस्परिक सद्भाव ही कुटुम्ब और समाज में सुख और शांति का संचार करता है । जिस परिवार में यह सुख नहीं है, वहाँ घोर अशान्ति का साम्राज्य रहता है। स्वयं अपना परिवार तो अशांत रहता ही है, पड़ोस के परिवारों की शांति भी भंग हो जाती है। पारिवारिक कलह कभी-कभी भीषण रूप भी धारण कर लेता है। श्री गणेशमलजी और उनकी धर्मपत्नी सोहनबाई अपने पारस्परिक सद्भावपूर्ण पारिवारिक जीवन से अत्यन्त संतुष्ट थे। दोनों का जीवन आनन्द के क्षणों में 6 हँसते-गाते व्यतीत हो रहा था। श्री गणेशमलजी के विनम्र एवं स्नेहसिक्त व्यवहार को देखकर उदयपुर निवासी स्व० धूलचन्द जी की धर्मपत्नी सरदारबाई ने गोद रख लिया। पुत्री रत्न की प्राप्ति-श्री गणेशमलजी अपनी धर्मपत्नी सोहनबाई के साथ आकर उदयपुर 0 रहने लगे । पुण्योदय से वि० सं० १९८२ आसोज कृष्णा पंचमी की रात को श्रीमती सोहनबाई की पावन कुक्षि से एक पुत्री रत्न का जन्म हुआ। पुत्री के जन्म से परिवार में प्रसन्नता का निर्झर फूट पड़ा। खुशियों से परिवार के सभी सदस्य झूम उठे । सभी ओर खुशियाँ ही खुशियाँ । कारण कि एक दीर्घ अन्तराल के पश्चात् शून्य आँगन बच्चे की मधुर किलकारियों से गूंज उठा । बालिका के जन्म से गृहवाटिका लहलहा उठी । माता-पिता को प्रसन्नता तो असीम थी । बालिका यद्यपि श्यामवर्णीय थी तथापि उसका मुखमण्डल भव्य और शरीर सौष्ठव मनभावन था : प्रत्येक आगन्तुक को वह बरबस ही आकर्षित करने में समर्थ थी । इस कारण परिवार के सदस्य प्रायः कहा करते थे कि कहीं इसे नजर (दृष्टिविष) न लग जाए । शनैः-शनैः बालिका को सभी 'नजर' नाम से ही पुकारने लगे, सम्बोधित करने लगे और इस प्रकार बालिका का नाम ही 'नजर' पड गया।। १२२ द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन 20 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ON 60 Jain Education International Yon Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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