SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से सेठ जिनदत्त और उसके चारों पुत्र नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर के साथ जैन दीक्षा ग्रहण कर ली । उनके नामों से गच्छ और कुल परम्परा प्रारम्भ हुई । साध्वी ईश्वरी ने भी उत्कृष्ट साधना कर अपना जीवन चमकाया । इसके पश्चात् अनेक साध्वियाँ हुईं किन्तु उनका किसी प्रकार का कोई परिचय नहीं मिलता है । आधुनिककालीन साध्वियाँ तेजोमूर्ति भाग्यशालिनी भागाजी - इनका जन्म दिल्ली में हुआ था । माता-पिता के नाम ज्ञात नहीं हैं । भागाजी के सांसारिक नाम का भी पता नहीं है । इन्होंने आचार्य अमरसिंहजी म० के सम्प्रदाय में किसी साध्वी के पास आहती दीक्षा ग्रहण की थी। ये महान प्रतिभा सम्पन्न थीं । इनके द्वारा लिखे हुए अनेकों शास्त्र, रास तथा अन्य ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ श्री अमर जैन ज्ञान भंडार, जोधपुर में तथा अन्यत्र संग्रहीत हैं । लिपि सुन्दर नहीं है, पर शुद्ध है । आचार्य श्री अमरसिंह जी म० के नेतृत्व में पंचेवर ग्राम में संत-सम्मेलन हुआ था, उसमें उन्होंने भी भाग लिया था और जो प्रस्ताव पारित हुए उनमें उनके हस्ताक्षर भी हैं । अनुश्रुति है कि उन्हें बत्तीस क्षेत्र दिल्ली, पंजाब, राजस्थान रहा। वीराजी प्रमुख थीं। वे भी आगमों के परिचय उपलब्ध नहीं होता है। इनकी मुख्य शिष्या सद्दाजी थीं । आगम कण्ठस्थ थे । वे स्वाध्याय- प्रेमी भी थीं। उनका विहार महासती श्री भागाजी की अनेक विदुषी शिष्यायें हुई थीं। उनमें रहस्यों की ज्ञाता और चारित्रनिष्ठा थीं । वीराजी का विशेष मोहजी महासती सद्दाजी - इनका जन्म सांभर- राजस्थान निवासी पीथोजी मोदी की धर्मपत्नी पाटन की कुक्षि से वि० सं० १८५७, पौष कृष्णा दशमी के दिन हुआ था । मालचन्द और बालचन्द ये दो इनके ज्येष्ठ भ्राता थे । सद्दाजी अद्वितीय रूपवती थीं, इस कारण इनका विवाह जोधपुर रियासत में एक अधिकारी सुमेरसिंहजी मेहता के साथ हुआ था । सहाजी को बाल्यकाल से ही धार्मिक संस्कार मिले थे । इस कारण वे प्रतिदिन सामायिक करती थीं और प्रातःकाल व संध्या के समय प्रतिक्रमण भी करती थीं । एक बार वे एक प्रहर तक संवर की मर्यादा लेकर नमस्कार महामन्त्र का जाप कर रही थीं, उसी समय दासियाँ घबराई हुई और रोती हुईं दौड़ी आई और कहा - "स्वामिन् ! गजब हो गया । मेहता जी की हृदयगति एकाएक रुक जाने से उनका प्राणान्त हो गया है ।" यह सुनते हो सद्दाजी ने तीन दिन का उपवास कर लिया और दूध, दही, घी, तेल और मिष्ठान्न इन पांचों विगय का जीवनपर्यन्त के लिये त्याग कर दिया। भोजन में केवल रोटी और छाछ आदि का उपयोग करना ही रखकर शेष सभी वस्तुओं का त्याग कर दिया। पति मर गया, पर उन्होंने रोने का भी त्याग कर दिया। सासससुर विलाप करने लगे तो उन्हें भी समझाया कि रोने से कोई लाभ नहीं है । आपका पुत्र आपको छोड़कर संसार से विदा हो चुका है, ऐसी स्थिति में मैं अब श्रमण धर्म स्वीकार करूंगी। सभी ने उन्हें समझाया, पर वे दृढ़ बनी रहीं और अन्त में महासती भागाजी की शिष्या महासती वीराजी के पास वि. सं. १८७७ में बाड़मेर जिले के जसोल गांव में जैन भागवती दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षोपरान्त उन्होंने अठारह शास्त्र कण्ठस्थ किये, सैकड़ों थोकड़े और अन्य दार्शनिक धार्मिक ग्रन्थ भी । देश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रमण कर सद्दाजी ने धर्म की खूब प्रभावना की । अपने अन्तिम दिनों में वे जोधपुर में स्थिरवास रहीं द्वितीय खण्ड : जीवन-दर्शन १११ Jan Education Internation साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ or Private & Personal Use Only जन www.jainchbrary.org
SR No.012032
Book TitleKusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherKusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
Publication Year1990
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy