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________________ शान्त होगा। जिसके घर पर ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किये रहता है, उस मन्द बुद्धि की सारी आशा और प्रतीक्षायें- जिनके मिलने की उसे पूर्ण आशा रहती है और जिनके प्राप्त होने का निश्चय रहता है एवं जिनकी प्राप्ति की वह प्रतीक्षा कर रहा है— नष्ट हो जाती हैं। न तो वे पदार्थ ही उसे प्राप्त होते और जो प्राप्त भी हो जाते हैं, उनसे उसे किसी प्रकार के सुख की उपलब्धि नहीं होती। उसके यज्ञ-दान आदि इष्ट कर्म तथा कुआं, तालाब, धर्मशाला आदि बनवाने रूप पूर्त कर्म एवं उनके सम्पूर्ण फल नष्ट हो जाते हैं। इतना ही नहीं, अतिथि का असत्कार उसके पुत्र, पशु आदि धन का भी नाश कर देता है।' इस प्रकार यहां पर अतिथि को सभी प्रकार से अनुपेक्षणीय बताकर उसके महत्व का प्रतिपादन किया गया है। उनकी इन बातों को सुनकर यमराज नचिकेता के पास पहुंचे। उन्होंने अपना अपराध स्वीकार करते हुए सबसे पहले उस ब्राह्मण-पुत्र की पूजा की। इसके उपरांत उन्होंने नचिकेता से एक-एक रात्रि के लिये एक-एक करके तीन वर मांगने को कहा। पितृ-भक्त नचिकेता ने यह सोचकर कि पिता को संतुष्ट रखना ही पुत्र का सर्वप्रथम कर्तव्य होता है। यमराज से पहला वर यह मांगा कि उसके पिता उसके प्रति शांत संकल्प, प्रसन्न चित्त और क्रोध-रहित हो जायं। जब वह उनके (यमराज) यहां से लौटकर घर जाय तो उसके पिता उसे पहचान कर उससे पहले की तरह बातचीत करें। यमराज के 'तथास्तु' कहने तथा पूर्ण आश्वासन देने पर नचिकेता ने उनसे सभी जीवों के कल्याण हेतु स्वर्ग के साधन भूत अग्नि-तत्व को जानने की इच्छा से कहा- 'हे मृत्यो? कहते हैं स्वर्ग में न किसी प्रकार का भय है न कोई चिन्ता है। वहां तो आप भी नहीं हैं। वहां न वृद्धावस्था का डर है न भूख-प्यास की परवाह। अतएव आप उसी स्वर्ग-प्राप्ति के साधन अग्नि (यज्ञ सम्बन्धी ज्ञान) का मुझ श्रद्धालु को ज्ञान करावें। क्योंकि उसके द्वारा स्वर्ग को प्राप्त हुए पुरुष ही अमृतत्व की प्राप्ति करते हैं।' नचिकेता के दूसरे वर को सुनकर यमराज ने समस्त लोकों के आदि कारण उस अग्नि (यज्ञ) की और उसके लिये जितनी ईंटें चाहिए तथा जिस प्रकार रक्खी जानी चाहिए आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन कर दिया। यमराज ने अग्नि-तत्व का जैसा वर्णन किया था, नचिकेता ने उन्हें उसे ज्यों का त्यों सुना दिया। नचिकेता की तीक्ष्ण बुद्धि तथा उसकी प्रतिभा से प्रसन्न हो महात्मा यम ने उसे अपनी ओर से एक वर और देते हुए कहा- 'हे नचिकेता! यह अग्नि तेरे ही नाम से प्रसिद्ध होगी।' इसी के साथ उन्होंने उसे अनेक रूपों वाली एक माला भी दी। कहते हैं जो तीन बार नचिकेताग्नि का चयन करता है वह माता, पिता और आचार्य से शिक्षा प्राप्त कर जन्म और मृत्यु को पार कर लेता है। वह ब्रह्म से उत्पन्न, ज्ञानवान और स्तुति योग्य देव को जानकर तथा उसका अनुभव कर अत्यन्त शान्ति को प्राप्त हो जाता है। अत: उस अग्नि की ब्रह्म से उत्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न पूजनीय देव के रूप में ही उपासना करनी चाहिए। इस प्रकार उस यज्ञ की विधि को जो जानता है तथा उसका सम्पादन करता है वह देह पात से पहले ही मृत्यु के बन्धन से मुक्त होकर स्वर्ग में आनन्द को प्राप्त होता है। नचिकेताग्नि को स्वर्ग का साधन बतलाकर तथा उसकी कुछ और प्रशंसा करके यमराज ने नचिकेता से तीसरा वर मांगने को कहा। इस लोक के कल्याण के लिये पिता की प्रसन्नता का वर तथा परलोक के लिये स्वर्ग के साधन रूप अग्नि-विज्ञान का ज्ञान प्राप्त कर नचिकेता सोचता है कि उसे अब आत्मा के यथार्थ ज्ञान तथा उसकी प्राप्ति का उपाय जान लेना चाहिए। यद्यपि मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व रहता है या नहीं, इस सम्बन्ध में नचिकेता को स्वयं कोई सन्देह नहीं था, फिर भी उसने अपना मत न बतला कर प्रश्न को इस प्रकार पूछा कि इसके उत्तर में आत्मा की नित्य-सत्ता, उसके स्वरूप, गुण और परमात्मा की प्राप्ति के साधनों का विवरण अपने आप ही आ जाता है। अत: तीसरा प्रश्न आत्म-ज्ञान के विषय में है न कि आत्मा के अस्तित्व में सन्देह उत्पन्न करने वाला। तैत्तिरीय ब्राह्मण में नचिकेता का जो इतिहास मिलता है,उसमें नचिकेता ने तीसरे वर में पुनर्मृत्यु (जन्म-मृत्यु) पर विजय पाने का (मुक्ति का साधन) जानना चाहा है (तृतीय वृणीष्वेति । पुनर्मृत्योंमेऽ पचितिं ब्रूहि)। परन्तु यहां पर उसने यमराज से तीसरा वर मांगते हुए कहा- 'मृत मनुष्य के विषय में एक सन्देह है। कुछ लोग तो कहते हैं कि यह रहता है और कुछ लोगों का कहना है यह 'नहीं रहता' मृत्यु के पश्चात् आत्मा का अस्तित्व रहता है अथवा नहीं रहता, इसके सम्बन्ध में हमें प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से कोई निश्चित ज्ञान नहीं होता। आप मृत्यु के अधिपति देवता हैं। अतएव यह आत्म-तत्व मैं आप से जानना चाहता है। यही मेरे वरों में से बचा हुआ तीसरा वर है।' नचिकेता के इस आत्म-तत्व संबंधी महत्वपूर्ण प्रश्न को सुनकर यमराज ने सोचा 'कृषि कुमार बालक होने पर भी बड़ा बुद्धिमान है। इसी से यह इतने गोपनीय तत्व को जानने का आग्रह कर रहा है। परन्तु आत्म-तत्व का ज्ञान सभी को बतलाना उचित नहीं। इसे केवल अधिकारी के समक्ष ही प्रकट करना चाहिए। अधिकारी साधन-चतुष्टय से सम्पन्न होना चाहिए। इसीलिए पहले पात्र की परीक्षा की आवश्यकता है।' यही सोचकर यमराज ने आत्म-तत्व को अत्यन्त कठिन कहकर नचिकेता को टालना चाहा। उन्होंने नचिकेता से कहा कि इस विषय में पहले देवताओं को भी सन्देह हुआ था। इसे समझ सकना आसान नहीं है। यह अत्यन्त सूक्ष्म और गहन विषय है। अतएव वह इसे जानने का हठ न करे। कोई अन्य वर मांग ले। इसके लिए वह उन पर दबाव न डाले। इसे उन्हीं के लिए छोड़ दे। विषय की सूक्ष्मता तथा गहनता का नाम सुनकर नचिकेता को तनिक भी घबड़ाहट नहीं हुई। अपने प्रश्न पर अड़े रहकर वह और भी दृढ़तापूर्वक कहने लगा कि 'निश्चय ही इस विषय में देवताओं को भी सन्देह हुआ था और आप भी इसे कठिन ही बतला रहे हैं। इसी से इस प्रश्न का महत्व और भी बढ़ जाता है। दूसरे इस महत्वपूर्ण विषय को समझाने वाला आप जैसा अनुभवी वक्ता भी नहीं मिल सकता। आप इसे छोड़कर दूसरा वर मांगने को कहते हैं, परन्तु मैं तो समझता हूं कि इसकी तुलना में अन्य कोई वर ही नहीं है, क्योंकि और सभी वर अनित्य फल वाले हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड / १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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