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________________ राधेश्याम मिश्र भगवत्प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन : जनसेवा भगवत्प्राप्ति के अनेक साधन हैं— कर्म, ज्ञान, भक्ति, प्रपत्ति आदि । परन्तु सर्वोत्तम साधन है जनसेवा, दीन दुखियों की सेवा। जन सेवा के अनेक रूप हैं, अनेक प्रकार हैं और हैं अनेक क्षेत्र दीन-दुखियों की सेवा सुश्रुषा ही सबसे बड़ी उपासना है। वियोगी हरि ने लिखा हैदीनन देख घिनात जे नहिं दीनन सो काम । , कहां जानि वे लेत हैं दीनबन्धु को नाम ।। श्री मद्भागवत में स्थान-स्थान पर इसका उल्लेख मिलता है। श्री नाभादासजी ने 'भक्तमाल' में अनेक ऐसे भक्तों के चरित्रों को दर्शाया है जो दिन-रात जनसेवा में ही लगे रहते थे और इसी को भगवत्प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन समझते थे और जो इसी के द्वारा कृत कृत्य भी हुए। इसके साक्ष्य की कोई आवश्यकता नहीं। जब आप किसी दुखी मनुष्य की कुछ मदद करते हैं तब आप सोचते हैं कि मेरे इस कार्य से भगवान खुश होंगे, आपकी आत्मा प्रफुल्लित और रोमांचित हो उठती है। जनता में जनार्दन का निवास है। चलती-फिरती नारायण की मूर्तियों की अर्चना, सेवा का महत्व भक्ति से बहुत बढ़कर है। वियोगी हरि ने कहा है— मैं खोजता तुझे था जब कुंज और वन में, तू ढूंढता मुझे था तब दीन के वतन में।... तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था मैं था तुझे रिझाता संगीत में, भजन में। हीरक जयन्ती स्मारिका Jain Education International ईश्वर को पाना, उसकी महिमा को जानना, उसके आदि अन्त को जानना वास्तव में बड़ा कठिन है। यदि 'एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय' वाली उक्ति को चरितार्थ करके मात्र जनसेवा ही लक्ष्य हो जाय तो भगवत्प्राप्ति सुनिश्चित है प्रश्न है क्या भगवान की प्राप्ति सम्भव है? यदि है तो जो भी साधन शास्त्रों में वर्णित हैं कर्म, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य आदि उन सभी में उन्हें कहां खोजा जाय ? ईश्वर निराकार है या साकार ? अनेकानेक प्रश्न सामने आते हैं और उनके अनेकानेक समाधान और मत वेद, पुराण और धर्म ग्रन्थों में वर्णित हैं। गीता के अठारहवें अध्याय के छियालिसवें श्लोक में तो यहां तक कहा गया है. ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता है— ईश्वरः सर्वभूतानाम् हद्देशे अर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्र रूढानि मायया । इसलिए गीता ने "समत्वं योग उच्यते" की घोषणा की है। गीता का साम्यदर्शन गणित का समीकरण नहीं है, न रेखागणित का साध्य ही है जहां एक त्रिभुज को दूसरे के बराबर सिद्ध करने हेतु दोनों त्रिभुजों को इस प्रकार रखा जाता है कि उनकी भुजायें एक दूसरे पर फिट आ जाय। हां, गणित के अनुसार उसके पास एक ईश्वर है और एक ही आत्मा है। ईश्वर ही आत्मा बनकर समान भाव से सभी प्राणियों में निवसता है। आत्मा उस दिव्य प्रकाश का खंड है जिसको मानस में महात्मा तुलसी ने भी 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' कहकर प्रतिपादित किया है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि नाम भिन्न-भिन्न होने पर भी वह परमब्रह्म सत्य सनातन, शाश्वत, चिरन्तन सब कुछ होते हु जीवों में प्रदीप्त है, प्रकाशित है अतः उसे खोजने की आवश्यकता नहीं है । वह तो अगोचर होते हुए भी गोचर है और सहज प्राप्य है अगर हम अपनी दृष्टि को थोड़ा सा परिवर्तित कर लें और सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भाग भवेत् । इस विश्व में सब सुखी हों, सब नीरोग हों, सब कल्याण - मंगल का दर्शन करें, कोई भी लेशमात्र दुख का भागी न हो । सर्वेस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु । सर्व सदबुद्धिमाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु ।। कठिनाइयों से, विपत्तियों से सच त्राण पायें सब मंगल का दर्शन करें, सब सदबुद्धि को प्राप्त हों और सब सर्वदा सर्वत्र आनन्द लाभ करें, ऐसी हमारी भावना है। यदि हमारी भावना ऐसी होगी तो हमारा आचरण भी होगा इसी के अनुरूप । हम अपने उन बन्धुओं पर मानव मात्र या जीव मात्र पर प्रेम और कृपा की वर्षा करेंगे। दया, करुणा, दान, सेवा, मैत्री आदि भाव ही क्रमशः भगवत्प्राप्ति में सहायक सिद्ध होते हैं वैसे सभी गुण क्रमशः एक दूसरे के परस्पर सहयोगी हैं और किसी एक के आने से ही सारे के सारे गुण क्रमशः आने लगते हैं। देवर्षि नारद ने युद्धिष्ठिर के द्वारा पूछे जाने पर मनुष्य मात्र के तीस धर्मों For Private & Personal Use Only अध्यापक खण्ड / १२ www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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