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________________ ब्रह्मगुप्त ने 'बाह्मस्फुट सिद्धांत' के 25 अध्यायों में से 2 अध्यायों में गणितीय सिद्धांतों एवं विधियों का विस्तृत वर्णन किया। उन्होंने गणित की 20 क्रियाओं तथा 8 व्यवहारों पर प्रकाश डाला। बीजगणित में समीकरण-साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्णीत द्विघातीय समीकरण का समाधान भी बताया। जिसे आयलर ने 1764 ई0 में और लांग्रेज ने 1768 ई0 में प्रतिपादित किया। ब्रह्मगुप्त ने समखात (Prisn) और सूची (Cone and conical column)के घनफल ज्ञात करने की विधि ज्ञात की। ब्रह्मगुप्त ने गुणोत्तर श्रेणी का योग ज्ञात करने की विधि और समकोण त्रिभुज के शुल्व सूत्र का विस्तृत वर्णन भी किया है। ब्रह्मगुप्त ने सर्वप्रथम अनन्त की कल्पना की और बताया कि कोई भी ऋण अथवा धनराशि शून्य से विभाजित होने पर अनन्त हो जाती है। महावीराचार्य (850 ई0): महावीराचार्य जैन धर्मावलम्बी थे। ये अमोघवर्ष-नृपतुंग नामक राष्ट्रकूट नरेश के सभासद थे। अमोघवर्ष नृपतुंग मैसूर तथा अन्य कन्नड़ क्षेत्रों के शासक थे तथा नवीं शती के पूर्वार्द्ध में सिंहासनारूढ़ हुए थे। अत: अनुमान लगाया जाता है कि महावीराचार्य 850 ई0 के लगभग हुए होंगे। महावीर ने 'गणितसार संग्रह' नामक अंकगणित के वृहत् ग्रन्थ की रचना की। इसमें अंकगणित का विधिवत् वर्णन किया गया है तथा उसमें संग्रहीत प्रश्न अत्यन्त मनोरंजक हैं। उन्होंने ल0स0अ0 का आधुनिक नियम ज्ञात किया जिसका यूरोप में पहली बार प्रयोग 1500 ई0 में किया गया। इन्होंने वृत्तान्तर्गत चतुर्भुज तथा दीर्घ वृत्त के क्षेत्रफल ज्ञात करने के सूत्रों का निर्गमन भी किया। श्रीधराचार्य (850 ई0): श्रीधराचार्य ने अंकगणित पर नवशतिका तथा त्रिशतिका, पाटीगणित और बीजगणित पुस्तकों की रचना की। इनकी रचना शैली अत्यन्त सरल, संक्षिप्त तथा हृदयग्राही है। अतएव इन ग्रन्थों का अत्यधिक प्रचार हुआ और सम्पूर्ण भारतवर्ष में इनका पठन-पाठन हुआ। इनकी बीजगणित की पुस्तक अप्राप्य है किन्तु इनका द्विघात समीकरण हल करने का सूत्र जो "श्रीधराचार्य विधि" कहलाता है, आज भी व्यापक रूप से व्यवहृत हो रहा है। इनकी पुस्तक “पाटी गणित" का अनुवाद अरब में "हिसाबुल तरब्त" नाम से हुआ। आर्यभट्ट द्वितीय (950 ई0): आर्य भट्ट (द्वितीय) महाराष्ट्र के निवासी थे। उन्होंने महासिद्धांत नामक एक ग्रन्थ लिखा जिसके एक अध्याय में अंकगणित तथा दूसरे अध्याय में प्रथम घात वाले अतिर्धार्य समीकरण (कूटक) का प्रतिपादन किया। गोले के पृष्ठफल का शुद्ध मान कदाचित् इसी ग्रन्थ में मिलता है। इस ग्रन्थ में TT का मान 22/7 लिया गया है जो आज भी सर्वमान्य है। श्रीपति मिश्र (1039 ई0): श्रीपति मिश्र भी महाराष्ट्र के निवासी थे। इन्होंने "सिद्धान्तशेखर" एवं "गणिततिलक" की रचना की। इन्होंने क्रमचय (Permutation) और संचय (Combination) पर विशेष कार्य किया। इनकी पुस्तक गणित तिलक का प्रारम्भिक भाग ही प्राप्त हो सका है, शेष भाग अप्राप्य नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (11वीं शती): . चक्रवर्ती की प्रसिद्ध पुस्तक 'गोम्मटसार' है जिसके दो भाग हैं, कर्मकाण्ड एवं जीव काण्ड। दोनों में जीवराशियों, उनके कर्मों, आस्तवबंध, निर्जरा, सार्वत्रिक समुच्चयों, एकैकी संगति, सक्रमबद्धी प्रमेय (well ordering theorems) आदि की चर्चा है। एकैकी संगति विधि का प्रयोग विदेशों में गैलीलियो एवं जार्ज कैण्टर (1845-1918) द्वारा कई शताब्दियों बाद किया गया। भास्कराचार्य द्वितीय (1114 ई0): मध्ययुग के अन्तिम तथा अद्वितीय गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “सिद्धान्त-शिरोमणि", "लीलावती", "बीजगणित", "गोलाध्याय", "गृहगणितम्" एवं “करण कुतूहल" में गणित की विभिन्न शाखाओं अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति आदि को एक प्रकार से अंतिम रूप दिया गया है। वेदों में जो सिद्धांत सूत्र रूप में थे, उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति भास्कराचार्य की रचना में हुई है। इनमें ब्रह्मगुप्त द्वारा बतायी गई 20 प्रक्रियाओं और 8 व्यवहारों का अलग-अलग विवरण और उनमें प्रयोग में लायी जाने वाली विधियों का प्रतिपादन सुव्यवस्थित और सुसाध्य रूप में किया गया है। ___ लीलावती में संख्या पद्धति का जो आधारभूत और सृजनात्मक प्रतिपादन किया गया है, वह आधुनिक अंकगणित और बीजगणित की रीढ़ है। लीलावती के काव्यपूर्ण सरल प्रश्न आज भी कला और विज्ञान के संगम के अनूठे उदाहरण हैं। भास्कराचार्य द्वितीय द्वारा बीजगणित के अनिर्णीत समीकरणों के समाधान के लिए प्रयुक्त चक्रवात विधि की प्रसिद्ध विद्वान हेंकल ने भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कहा है, "यह निश्चय रूप से संख्या सिद्धांत में लायांज से पूर्व सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है।" इसी नियम का फरमट ने 1657 में प्रयोग किया। ___ अपनी पुस्तक “सिद्धान्त शिरोमणि" में भास्कराचार्य द्वितीय ने त्रिकोणमिति का विस्तृत उल्लेख किया है। ज्या, कोज्या, उत्क्रमज्या के विभिन्न सम्बन्ध और तालिका, अवकलन, अणुचलन-कलन (Infiritesimal Calcules) तथा समाकलन (Integration) का भी प्रतिपादन किया। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की भी पूरी जानकारी उन्हें थी। उन्होंने लिखा है कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है जो वस्तुओं को खींचकर अपने धरातल पर लाती है। उत्तर मध्यकाल (1200 ई0 से 1800 ई0 तक): भास्कराचार्य द्वितीय के बाद गणित में मौलिक कार्य अधिक नहीं हो सका। प्राचीन ग्रन्थों पर टीकाएं ही उत्तर मध्यकाल की मुख्य देन हैं। केरल के गणितज्ञ नीलकण्ठ ने 1500 ई0 में एक पुस्तक में ज्या x का मान निकाला: ज्या x = x-x/3 + x/5 मलयालम पाण्डुलेख "मुक्तिभास" में भी यह सूत्र दिया गया है। जिसे आज हम ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते हैं। इस काल के गणितज्ञों एवं उनकी कृतियों का विवरण अग्रांकित हीरक जयन्ती स्मारिका अध्यापक खण्ड/४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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