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________________ देना होता होगा। 5. कुलधर्म - परिवार अथवा वंश-परम्परा के आचार-नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुलधर्म है। परिवार का अनुभवी, वृद्ध एवं योग्य व्यक्ति कुलस्थविर होता है परिवार के सदस्य कुलस्थविर की आज्ञाओं का पालन करते हैं और कुलस्थविर का कर्तव्य है परिवार का संवर्धन एवं विकास करना तथा उसे गलत प्रवृत्तियों से बचाना । जैन परम्परा में गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिए कुलधर्म का पालन आवश्यक है, यद्यपि मुनि का कुल उसके पिता के आधार पर नहीं वरन् गुरु के आधार पर बनता है । 6. गणधर्म गण का अर्थ समान आचार एवं विचार के व्यक्तियों का समूह है। महावीर के समय में हमें गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। गणराज्य एक प्रकार के प्रजासत्तात्मक राज्य होते हैं। गणधर्म का तात्पर्य है गण के नियमों और मर्यादाओं का पालन करना। गण दो माने गये हैं. लौकिक (सामाजिक) और 2. लोकोत्तर (धार्मिक) । जैन परम्परा में वर्तमान युग में भी साधुओं के गण होते हैं जिन्हें गच्छ कहा जाता है। प्रत्येक गण (गच्छ) के आचार-नियमों में थोड़ा-ब - बहुत अन्तर भी रहता है। गण के नियमों के अनुसार आचरण करना गणधर्म है । परस्पर सहयोग तथा मैत्री रखना गण के प्रत्येक सदस्य का कर्त्तव्य है गण का एक गणस्थविर होता है। गण की देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर व्यवस्थाएं देना, नियमों को बनाना और पालन करवाना गणस्थविर का कार्य है। जैन विचारणा के अनुसार बार-बार गण को बदलने वाला साधक हीन दृष्टि से देखा गया है । बुद्ध ने भी गण की उन्नति के नियमों का प्रतिपादन किया है। - 7. संघधर्म - विभिन्न गणों से मिलकर संघ बनता है। जैन आचार्यों के संघधर्म की व्याख्या संघ या सभा के नियमों के परिपालन के रूप में की है। संघ एक प्रकार की राष्ट्रीय संस्था है जिसमें विभिन्न कुल या गण मिलकर सामूहिक विकास एवं व्यवस्था का निश्चय करते है। संघ के नियमों का पालन करना संघ के प्रत्येक सदस्य का कर्त्तव्य है । जैन परम्परा में संघ के दो रूप हैं— 1. लौकिक संघ और 2. लोकोत्तर संघ। लौकिक संघ का कार्य जीवन के भौतिक पक्ष की व्यवस्थाओं को देखना है, जबकि लोकोत्तर संघ का कार्य आध्यात्मिक विकास करना है। लौकिक संघ हो या लोकोत्तर संघ हो, संघ के प्रत्येक सदस्य का यह अनिवार्य कर्त्तव्य माना गया है कि वह संघ के नियमों का पूरी तरह पालन करे । संघ में किसी भी प्रकार के मनमुटाव अथवा संघर्ष के लिए कोई भी कार्य नहीं करे एकता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए सदैव ही प्रयत्नशील रहे। जैन परम्परा के अनुसार साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इन चारों से मिलकर संघ का निर्माण होता है। नन्दीसूत्र में संघ के महत्व का विस्तारपूर्वक सुन्दर विवेचन हुआ है, जिससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा में नैतिक साधना में संघीय जीवन का कितना अधिक महत्व है। ३२ 8. श्रुतधर्म सामाजिक दृष्टि से धर्म का तात्पर्य है शिक्षण व्यवस्था सम्बन्धी नियमों का पालन करना। शिष्य का गुरु के प्रति, गुरु का हीरक जयन्ती स्मारिका Jain Education International शिष्य के प्रति कैसा व्यवहार हो, यह श्रुतधर्म का ही विषय है। सामाजिक संदर्भ में श्रुतधर्म से तात्पर्य शिक्षण की सामाजिक या संघीय व्यवस्था है। गुरु 'और शिष्य के कर्तव्यों तथा पारस्परिक सम्बन्धों का बोध और उनका पालन श्रुतधर्म या ज्ञानार्जन का अनिवार्य अंग है। योग्य शिष्य को ज्ञान देना गुरु का कर्तव्य है, जबकि शिष्य का कर्तव्य गुरु की आज्ञाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करना है। 9. चारित्रधर्म चारित्रधर्म का तात्पर्य है भ्रमण एवं गृहस्थ धर्म के आचारनियमों का परिपालन करना । यद्यपि चारित्रधर्म का बहुत कुछ सम्बन्ध वैयक्तिक साधना से है, तथापि उनका सामाजिक पहलू भी है। जैन आचार के नियमों एवं उपनियमों के पीछे सामाजिक दृष्टि भी है | अहिंसा सम्बन्धी सभी नियम और उपनियम सामाजिक शान्ति के संस्थापन के लिए हैं। अनाग्रह सामाजिक जीवन से वैचारिक विद्वेष एवं वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह पर आधारित जैन आचार के नियम- उपनियम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में सामाजिक दृष्टि से युक्त हैं, यह माना जा सकता है। 10. अस्तिकायधर्म अस्तिकायधर्म का बहुत कुछ सम्बन्ध तत्वमीमांसा से है, अतः उसका विवेचन यहां अप्रासंगिक है। इस प्रकार जैन आचार्यों ने न केवल वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के सम्बन्ध में विचार किया वरन् सामाजिक जीवन पर भी विचार किया है। जैन सूत्रों में उपलब्ध नगरधर्म, ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म आदि का यह वर्णन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन आचारदर्शन सामाजिक पक्ष का यथोचित मूल्यांकन करते हुए उसके विकास का भी प्रयास करता है। वस्तुतः जैनधर्म वैयक्तिक नैतिकता पर बल देकर सामाजिक सम्बन्धों को शुद्ध और मधुर बनाता है। उसके सामाजिक आदेश निम्न हैंजैनधर्म में सामाजिक जीवन के निष्ठा सूत्र 1. सभी आत्माएं स्वरूपत: समान हैं, अतः सामाजिक जीवन में ऊंच-नीच के वर्ग-भेद खड़े मत करो। -उत्तराध्ययन, 12/37 2. सभी आत्माएं समान रूप से सुखाभिलाषी हैं, अतः दूसरे के हितों का हनन, शोषण या अपहरण करने का अधिकार किसी को नहीं है। -आचारांग 1/2/3/3 3. सबके साथ वैसा व्यवहार करो, जैसा तुम उनसे स्वयं के प्रति चाह हो । -समणसुतं, 24 4. संसार के सभी प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखो, किसी से भी घृणा एवं विद्वेष मत रखो। -समणसुतं, 86 5. गुणीजनों के प्रति आदर भाव और दुष्टजनों के प्रति उपेक्षा- भाव (तटस्थ वृत्ति) रखो। -सामायिक पाठ 1 6. संसार में जो दु:खी एवं पीड़ित जन हैं, उनके प्रति करुणा और वात्सल्यभाव रखो और अपनी स्थिति के अनुरूप उन्हें सेवा सहयोग प्रदान करो। - - जैनधर्म में सामाजिक जीवन के व्यवहार सूत्र : उपासकदशांगसूत्र, योगशास्त्र एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णित श्रावक के गुणों, बारह व्रतों एवं उनके अतिचारों से निम्न सामाजिक विद्वत् खण्ड / ८७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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