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________________ महोपाध्याय ललितप्रभ सागर अप्पा सो परमप्पा सिद्धत्व हमारा स्वभाव सिद्ध अधिकार है। न केवल अधिकार है, स्वभाव भी है। आत्मा न मन है, न वचन है, न काया है, आत्मा सिर्फ 'आत्मा' है। निरालम्ब है, निष्कलुष है, निर्दोष है, मोह-रहित, भयमुक्त, वीतराग है। क्रोध, वैमनस्य, घृणा ये सब आत्मा के व्यक्तित्व नहीं हैं। राग और द्वेष, ये सब आरोपित हैं। खौलता हुआ पानी हाथ जला सकता है, लेकिन अग्नि को नहीं जला सकता। पानी का स्वभाव उष्णता नहीं, शीतलता है। चाहे जितना खौलता पानी अग्नि में डाला जाये, वह अग्नि को बुझाने में ही सहायक होगा, जलाने में नहीं। चाहे अग्नि में खौलता पानी डाला जाये या ठण्डा पानी, दोनों ही अग्नि को शान्त ही करेंगे। __ यहां जल का स्वभाव शीतलता है, गरमाहट आरोपित है। शीतलता वास्तव में निर्भयता, वीतरागता, निष्कलुषता की प्रतीक है, जबकि गरमाहट क्रोध, वैमनस्य, सांसारिकता आदि का प्रतीक है। सिद्धत्व का अर्थ भगवत्ता से है, हमारे परमात्म-स्वरूप से है। बहुत से लोग ऐसे हुए, जिन्होंने परमात्मा की खोज के लिये सारे संसार में तलाश की, लेकिन उन्हें हताश होना पड़ा। जो कभी खोया हो, उसे खोजा जाता है। बगल में बच्चे को रखकर, नगर भर में उसे ढूंढ़ना बेकार की परेशानी नहीं तो और क्या है? जिसे खोया ही नहीं, उसे खोजोगे कैसे? यह खोजने की यात्रा तो ठीक वैसे ही हुई, जैसे मृग कस्तूरी को ढूंढ़ने के लिये चारों ओर भटकता है, लेकिन अन्तत: कस्तूरी वहीं मिलती है, जहां से उसने खोजना प्रारम्भ किया था। परमात्मा भी आखिर वहीं मिलेगा जहां हम स्वयं है, जहां से हमने यात्रा प्रारम्भ की। परमात्मा का कभी वियोग नहीं हो सकता। जहां योग होता है, वहां वियोग होता है। परमात्मा का कभी वियोग नहीं हुआ, इसलिये योग भी कैसे होगा। इसलिए परमात्मा को खोजना नहीं है, मात्र बोध का रूपान्तरण करना है। सिर्फ अन्तर की आंख खोलकर स्थिति को देखना है, समझना है। यह दर्शन ही समझ की क्रान्ति होगी। देखा या खोजा उसे जाता है, जो बाहर हो। जो बाहर है ही नहीं, उसे बाहर कैसे ढूंढा जाये? क्या आत्मा, आत्मा को ढूंढ़ेगी? क्या व्यक्ति अपने आप पर शंका करेगा? लोग आत्मा पर शंका करते हैं। हकीकत में तो जो शंका कर रहा है, वही आत्मा है। इससे अधिक हास्यास्पद क्या होगा कि 'आत्मा' अपने आप पर शंकास्पद है। परमात्मा कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर है, हम स्वयं हैं, पर बाहर इसलिए ढूंढ़ रहे हैं, क्योंकि इन्द्रियां बाहर खुलती हैं। आंख दूसरे को देखती है, कान दूसरे को सुनते हैं, नाक दूसरे की गंध लेती है, सब कुछ बाहर से जुड़ा है, लेकिन अपने आप को ही भुला बैठे, तो बाहर क्या करोगे? आंख सब कुछ देख लेती है, लेकिन अपने आप को नहीं देख पाती, कान सब कुछ सुन लेता है, लेकिन अपनी अन्तर की आवाज अनसुनी रह जाती है। अगर परमात्मा को खोजना और पाना भी चाहते हो तो भीतर की यात्रा करनी होगी। इसमें आंख, कान, नाक, गला सहायक नहीं होंगे। यह यात्रा अतीन्द्रिय होती है। अन्तर के तत्व का दर्शन कर पायेगी अन्तर की आंख। जिसे शिव का तीसरा नेत्र कहा गया है, महावीर ने प्रज्ञा का नेत्र कहा। प्रकृति बाहर है, परमात्मा भीतर है। आखिर जो जहां होगा उसे वहीं तलाशा जायेगा। प्रकृति बाहर है, उसकी तलाश बाहर करो। परमात्मा भीतर है, उसे भीतर ढूंढ़ो। संसार बाहर है, उसे बाहर ढूंढो। समाधि भीतर है, उसे भीतर देखो। लोग विपरीत चलते हैं, अन्तर में संसार को बसाते हैं, बाहर समाधि और सिद्धत्व खोजते हैं। जो जहां है उसे वहीं देखना चाहिए। सुई अगर कमरे में खोई है, तो वहीं मिलेगी चाहे वहां अंधेरा ही क्यों न हो। कमरे में खोई हुई सुई, कभी छत पर नहीं मिलेगी। उल्टी यात्रा करने से क्या फायदा, जाना है बम्बई और बैठ रहे हो 'कालका मेल' में, गंतव्य आखिर कैसे मिलेगा। पर से जुड़ने के लिए आधार चाहिये। जैसे बिना इन्द्रियों के प्रकृति से सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता, वैसे ही इन्द्रियातीत हुए बिना परमात्मा से सम्बन्ध नहीं किया जा सकता। दूसरे से जुड़ने के लिए आधार चाहिये, लेकिन अपने आप से जुड़ने के लिये? वहां किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। कमरे में बैठे हो, अंधेरा है, अगर किसी भी वस्तु को ढूंढ़ना हो तो प्रकाश की आवश्यकता होगी, अगर अपने आपको ढूंढ़ना हो तो? अंधेरे में भी स्वयं का पता रहता है कि मैं हूं। आंख बाहर खुलती है, इसलिये हम उसे भी बाहर ढूंढ़ रहे हैं, जो बाहर है ही नहीं। छोटे दुःख को मिटाने की तरकीब बड़ा दुःख है, हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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