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________________ डॉ0 वसुमति डागा प्रभु महावीर (रेडियो रूपक) ढाई हजार वर्ष पूर्व अर्थात् भगवान महावीर के जन्म से पहले के भारत की तत्कालीन दशा बड़ी दयनीय थी। भारत दो राजनैतिक प्रणालियों में बंटा हुआ था। मगध, अंग, बंग, कलिंग, वत्स, अवन्ती और उत्तरी कौशल आदि राजतंत्र प्रणाली द्वारा शासित थे तथा वैशाली में लिच्छवी, कपिलवस्तु में शाक्य, कुशीनारा और मल्ल गणराज्य की जनता गणतंत्र की शासन प्रणाली से शासित थी। राजतंत्र में राजा ईश्वर का अवतार माना जाता था और गणतंत्र में शासक मात्र मानव समझा जाता था। भगवान महावीर वैशाली गणतंत्र के शासक श्री सिद्धार्थ के पुत्र थे। उनकी माता का नाम त्रिशला था। वैशाली के उपनगर क्षत्रिय कुण्डग्राम की पुण्य भूमि में ईसा पूर्व 599, 30 मार्च, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को उनका जन्म हुआ था। महावीर जब जीवन के अट्ठाइस वर्ष पूर्ण कर रहे थे तब उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। महावीर में श्रमण होने की भावना जाग उठी। एक ओर उनकी विनम्रता अपने चाचा पार्श्व और बड़े भाई नन्दिवर्धन द्वारा कुछ वर्षों तक घर में रहने के अनुरोध को अस्वीकार न कर सकी तो दूसरी ओर उनका संकल्प गृहवास को स्वीकार न कर सका। इस अर्न्तद्वन्द्व में उन्होंने एक नये मार्ग की खोज की। महावीर : "जिसकी वासना नहीं छूटी और जो श्रमण हो गया, वह घर में नहीं है, पर घर से दूर भी नहीं है, वासना से मुक्त होकर घर में रहते हुए भी घर से दूर रहा जा सकता है।" वाचक : वे परिवार में रहकर भी एकान्त में रहे उन्होंने अस्वाद का विशिष्ट अभ्यास किया। वे मौन और ध्यान में लीन रहे। उन्होंने अनुभव किया- घर में रहते हुए घर से दूर रहा जा सकता है पर यह सामुदायिक मार्ग नहीं है। वह तभी संभव है जब वे घर को छोड़ दें। परिवार वालों से आज्ञा लेकर उन्होंने घर छोड़ दिया। और जनता के समक्ष उन्होंने स्वयं श्रमण की दीक्षा स्वीकार की, उन्होंने संकल्प किया :-- महावीर : 1- आज से विदेह रहूंगा, देह की सुरक्षा नहीं करूंगा। जो भी कष्ट आये उन्हें सहन करूंगा। रोग की चिकित्सा नहीं कराऊंगा। भूख और प्यास की बाधा से अभिभूत नहीं होऊंगा। नींद पर विजय प्राप्त करूंगा। 2- अभय के सधे बिना समता नहीं सध सकती और विदेह के सधे बिना अभय नहीं सध सकता। भय का आदि बिन्दु देह की आसक्ति है। अभय की सिद्धि अनिवार्य है। हिंसा, बैर और अशांति सब देह में होते हैं, विदेह में नहीं। वाचिका : जब भगवान महावीर कनखल आश्रम के पार्श्ववर्ती देवालय के मंडप में ध्यान कर रहे थे, चण्डकौशिक सर्प ने दृष्टि से विष का विकिरण किया, भगवान पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हिंसा से जलती धरती पर, अमृतमेघ बन जो बरसा, विश्व शांति के महाभगीरथ, महावीर प्रभु की जय हो जय हो। मानवता का कल्पवृक्ष बन, नन्दन किया विश्व को जिसने, पाकर उसकी शरण दिव्यतम, सारी मानव जाति अभय हो। वाचक : भारतीय संस्कृति की अनादिकालीन श्रमण परम्परा में भगवान आदिनाथ से लेकर भगवान महावीर तक 24 तीर्थंकरों एवं अनन्तानन्त ऋषियों ने संसार के प्राणिमात्र के लिए धर्म का उपदेश देकर अनन्त शांति को प्राप्त करने का मार्ग बताया। भगवान महावीर ने कहा- “वत्थु सहावो धम्मो' वस्तु का जो स्वभाव है वही उसका धर्म है। लेकिन इस संसार के प्राणी अपने इस स्वभाव रूप धर्म को भूलकर चतुर्गत्यात्मक संसार में संक्रमण, परिभ्रमण कर रहे हैं। संसार परिभ्रमण के इस चक्र को हम भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म का पालन करके रोक सकते हैं और अपनी आत्मा को साक्षात् भगवान बना सकते हैं। भगवान महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तथा स्याद्वाद जैसे सिद्धांतों का उपदेश दिया और अपने समय के अधर्मांधकार को दूर कर धर्म का प्रकाश फैलाया। हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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