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________________ में अब गंजफे की बड़ी मांग है। ऐसे ही सांप-सीढ़ी खेल के कई प्रकार थे। मेरे देखने में एक पुराने कपड़े पर चित्रित किया सांप-सीढ़ी का अंकन आया जिसे मैंने बहुत पहले धर्मयुग में छपाया था। उसके बाद तो कई विदेशी उसके अध्ययनार्थ मेरे पास आये और उसके चित्र ले गये। हैं। ब्रिटेन में फसल काटते समय इस घास से पशु पक्षियों की आकृतियों के तरह-तरह के खिलौने बनाये जाते हैं। ग्रीस में क्रॉस गूंथे जाते हैं जो चर्च जाने वाले श्रद्धालुओं को भेंट किये जाते हैं। ___ माटी की इन मूर्तियों के अलावा लोक देवी-देवताओं की प्रस्तर प्रतिमाएं भी कई देवरों में पूजान्तर्गत मिलती हैं। पूर्वजों की प्रस्तर प्रतिमाओं के विविध अंकन भी बड़े कलात्मक परिवेश लिये देखे जाते हैं। इनमें पुरुष पूर्वज चीरे कहलाते हैं जबकि महिला पूर्वजों की प्रतिमाएं मातलोक नाम से जानी जाती हैं। लकड़ी के तोरणनुमा लोकदेवताओं के अंकन में मामादेव और रूपण बहुप्रसिद्ध देवता हैं। मिट्टी के बने कलात्मक घोड़े भी हमारे यहां पूजे जाते हैं, इन्हें घोड़ाबावसी कहते हैं। आदिवासी भील गरासियों में इनकी बड़ी मानता है। मनौती पूरी होने पर घोड़े चढ़ाये जाते हैं। गरासियों के एक गांव में तो मैंने एक चबूतरे पर सौ-डेढ़ सौ घोड़े चढ़े देखे। विदेशों में भी ये मूर्तियां और घोड़े पहुंच गये हैं। इन्हीं घोड़ों से प्रभावित होकर राजस्थान के विविध अंचलों में दरवाजों पर बने लकड़ी के घुड़लों का एक विदेशी ने बड़ा गहन अध्ययन किया। __ लोकदेवी-देवताओं के चांदी, पीतल, तांबे के बने नावों का भी मैंने बड़ा अच्छा संग्रह किया जिन्हें ग्रामीणजन अपने गले में धारण किये रहते हैं। विदेशियों में भी ये नॉवे बड़े लोकप्रिय हुए। रामदेवजी को कपड़े के घोड़े चढ़ाये जाते हैं। ये घोड़े एक फूंदे के आकार से लेकर पांच-पांच फीट तक के देखे जाते हैं। इतने ही बड़े घोड़े और हाथी भी जालोर के एक देवरे में मैंने चढ़े देखे। भीलों की गवरी के विसर्जन पर माटी का बना बड़ा ही कलात्मक हाथी जुलूस के रूप में घुमाया जाता है और अंत में पानी में विसर्जित कर दिया जाता है। बाबा रामदेव पर पेरिस विश्वविद्यालय से डॉ. शिला खान बड़ा महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं जो रामदेवजी के मेले रामदेवरा भी गई और कई कामड़-परिवारों और अन्य रामदेवजी से जुड़े उपासकों-भक्तों के साथ रहीं। कपड़ों पर विविध भांत की छापें छापने की परम्परा हमारे यहां बड़ी पुरानी है। लकड़ी की बनी इन छापों से जो पहनावे छापे जाते उनसे विशिष्ट जातियों की पहचान रहती। छपाई के इन कपड़ों ने धीरे-धीरे अपना आंचलिक परिवेश बढ़ाया और पूरे विश्व में अपनी पहचान दी। उसी का परिणाम है कि आज सांगानेर, बाड़मेर, आकोला आदि की छपाई के अंतर्राष्ट्रीय बाजार बने हैं। विदेशी महिलाएं यहां की छपाई के कपड़े पहने फूली नही समाती हैं। छपाई के इन बूंटों में भारतीय जीवन-परिवेश के जीवंतचक्र परिव्याप्त हुए मिलते हैं। ऊंट की खाल पर सोने की चित्रकारी करने में बीकानेर के उस्ता कलाकारों ने बड़ी ख्याति पाई। ऐसी ही ख्याति प्रतापगढ़ के सोनी परिवारों ने थेवा कलाकारी में हासिल की। ताश के पत्तों की तरह हमारे यहां गंजफा की टिकटियां किसी समय खूब प्रचलन में थीं। अब गंजफा खेल तो नहीं रहा पर इसकी कलात्मक टिकटियों की बड़ी मांग है। सम्पन्न घरों में हाथी-दांत की टिकटियों पर गंजफा के बड़े कलात्मक अंकन पाये जाते। साधारणतया लकड़ी के गंजफे प्रचलन में रहे। विदेशों यहां के मेंहदी मांडनों ने भी विश्व-बाजार पाया। विशिष्ट अवसरों पर एक नारियल में जो मेंहदी का हाथ-पांव मांडा जाता था, अब व्यापारिक दृष्टि से अपने ही देश में मेंहदी का कलात्मक हाथ बनाने के लिए पांच सौ रुपया तक पारिश्रमिक प्राप्त किया जाता है। केलिफोर्निया में विजय लक्ष्मी नागराजन तमिलनाडु और राजस्थान के मांडणों का तुलनात्मक अध्ययन कर रही हैं। इस संबंध में वे दो दिन के लिए यहां आईं। बता रही थी कि वहां के विश्वविद्यालय पुस्तकालय में मेरी मांडणा पुस्तक से उन्हें मेरे से मिलने की ललक चढ़ी। उनके आने पर मैंने एक और पुस्तक ही मांडणा चित्रों की उन्हें दिखाने को तैयार कर दी। जो सामग्री यहां उन्हें मिलीं, वे उसे पाकर जैसे निहाल हो गई। ___यहां के जनजीवन में पग-पग पर कला छितराई हुई है। घासफूस की टपरी भी यहां कला विहीन नहीं मिलेगी। कला गहनों में ही नहीं, पहनावे में ही नहीं, शरीर के गूदनों तक में भी मुखरित हुई मिलेगी। बालों की कंघियां भी यहां बड़ी कलात्मक सज्जा लिये हैं। सिर के बाल भी अपनी कलात्मक गूंथान में आकर्षित किये मिलेंगे। यहां महिला की अकेली कंचुकी (कांचली) ही पच्चीस तरह की मिलती है फिर उसकी सिलाई और उस पर उभारे चित्र, कौर किनारी के प्रकार भी चकित कर देने वाले हैं। लोककला यहां के कोठे कोठियों की, जूते-जूतियों की, चूड़ियों चिलमों की, मांडणे महावर की, आंख में अंजन की, बींदी की, चींदी की, घास के गजरे की, मिठाइयों के भांत की, हर जात की, हर बात की, रितुचर्या की मिलेगी। बेल्जियम के देनंदरमोड़ नामक नगर में सितम्बर माह में घोड़ी नृत्य का आयोजन सहसा ही राजस्थान के विवाह के अवसर पर आयोजित कच्छीघोड़ी नृत्य की याद करा देता है। जापान में प्रचलित कापुकी नृत्य में राजस्थानी ख्यालों की छवि देखने को मिलती है। इसमें भी पुरुष पात्र ही महिला पात्रों की भूमिका निभाते हैं। यहीं के नौ नामक नाच में आदिवासी भीलों में गवरी नाच की तरह मुखौटों का प्रयोग होता है। राजस्थान के घूमर, तेराताली, गैर जैसे नृत्यों की पहचान भी विदेशों में कई स्थानों पर देखने को मिलती है। राजस्थान की सांझी कला न जाने कब किस क्षण कहां-कहां होती हुई हमारे देश के दरवाजों से बाहर निकल फूली महकी। इस सांझीकला को मेरी बिटिया कहानी ने अपनी पी-एच.डी. का विषय बनाया। यहां पानी की सतह पर तथा जमीन पर भी कई तरह की रंग-बिरंगी सांझी-चितरावण कोरी जाती है। श्रीनाथजी के नाथद्वारा मंदिर की केले के पत्तों की सांझी बड़ी प्रसिद्ध हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012029
Book TitleJain Vidyalay Hirak Jayanti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKameshwar Prasad
PublisherJain Vidyalaya Calcutta
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size11 MB
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