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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म चिन्तन ३६ लगते हैं। इतना ही नहीं, सर्व पुद्गल खेल इन्द्रजाल के समान लगने लगते हैं। इससे आत्मज्ञानी के लिए जगत की घटनाओं का महत्त्व स्वप्न की घटनाओं से कुछ भी अधिक नहीं रहता, अर्थात् 'अनुभव' जीवनविषयक समग्र दृष्टिकोण ही बदल देता है। बौद्धिक प्रतीति विचार-विमर्श से पैदा होती है, किन्तु विचार स्वयं ही अविद्या पर निर्भर है। अतः आत्मस्वरूप की निर्धान्त प्रतीति विचार-विमर्श के द्वारा प्राप्त नहीं होती, यह प्रतीति विचार शान्त होने पर ही मिलती है। मन की उपशान्त अवस्था अथवा उसका नाश यह उन्मनी अवस्था है। इस अवस्था में 'अनुभव' मिलता है। इसलिए आत्मज्ञान की-अनुभव की प्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु को चाहिए कि वह प्रथम चंचल चित्त को अपनी इच्छानुसार प्रवर्तन करने की सामर्थ्य प्राप्त करे, और फिर एकाग्र बने इस चित्त को आत्मविचार में लगाकर उसका नाश करे । मोहनाश का यह अमोघ उपाय है। अनुभव क्या है ? चिदानन्द जी महाराज ने 'अनुभव' का परिचय देते हुए कहा है आपोआप विचारते, मन पाये विश्राम । रसास्वाद सुख ऊपजे, अनुभव ताको नाम ।। आतम अनुभव तीर से, मिटे मोह अंधार । आपरूप में झलझले, नहिं तस अन्त अपार ।' सिद्ध परमात्मा या श्री जिनेश्वरदेव के अथवा अपने ही शुद्ध स्वरूप का चिन्तन-मनन और ध्यान करते किसी धन्य क्षण में आत्मा शान्त हो जाता है एवं ध्याता, ध्येय के साथ तदाकार वन शुद्ध आत्मस्वरूप में लीन होकर, स्वयं के यथार्थ स्वरूप का एवं निजी अन्तरंग ऐश्वर्य का 'दर्शन' प्राप्त करता है । खुद के अलौकिक, शाश्वत आनन्दस्वरूप की इस अनुभूति से मोह अन्धकार के नष्ट हो जाने से ध्याता को तत्काल आत्मज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । इस अपूर्व घटना को शास्त्रीय परिभाषा में 'आत्मज्ञान' अथवा 'अनुभव' की संज्ञा दी गई है। १. (क) योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक-६६ । (ख) अध्यात्म सार, ध्यानस्तुत्यधिकार, श्लोक-२ । २. (क) समाभि शतक, दोहा-४। (ख) अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग, श्लोक-६ । ३. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २३, श्लोक–६ । ४. (क) अध्यात्मोपनिषद्, ज्ञानयोग, श्लोक-२४ । (ख) योगशास्त्र ‘सटीक' प्रकाश-~~-१२, श्लोक-३६ । ५. योगशास्त्र, प्रकाश -१२, श्लोक-५, टीका । ६. (क) अध्यात्मसार, अनुभवाधिकार, श्लोक १७-१६ । (ख) योगशास्त्र, प्रकाश-१२, श्लोक--४० । ७. अध्यात्म वावनी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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