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________________ खण्ड ३ : इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठ बहुत कुछ प्रतिष्ठा जमी हुई थी और सब बातों में इनकी धाक जमी हुई थी। पर, इनका यह सब व्यवहार जैन-शास्त्रों की दृष्टि से यतिमार्ग के सर्वथा विपरीत और हीनाचार का पोषक था।' चैत्यवास की इस दुर्दशा को देखकर चैत्यवासी यतिजनों के मन में भी क्षोभ उत्पन्न होता था, परन्तु उसका प्रतीकार करने का साहस विरले ही कर पाते थे। ऐसे साहसी और सच्चे यतियों/सुविहितों में श्री वर्धमानाचार्य का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने ८४ चैत्यस्थानों के अधिकार और वैभव को छोड़कर सच्चे साधु-जीवन को बिताने का संकल्प लिया था। वे चैत्यवासी जीवन को छोड़कर सुविहित अग्रणी उद्योतन सूरि के शिष्य बने और चैत्यवास का समूलोच्छेदन करने के लिए सक्रिय प्रयत्न किये । वे जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि आदि अठारह साधुओं के साथ चैत्यवासियों के गढ़ अनहिलपुर पाटण आये । अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ झेलकर भी वहाँ के राजपुरोहित के माध्यम से वहाँ के तत्कालीन महाराजा दुर्लभराज के सम्पर्क में आये। महाराज दुर्लभराज की अध्यक्षता में ही पंचासरा पार्श्वनाथ मन्दिर में शास्त्रार्थ का आयोजन हुआ। चैत्यवासी प्रमुख आचार्य सूराचार्य आदि के साथ शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ आचार्य वर्धमान की उपस्थिति में आचार्य जिनेश्वर ने किया और उन्होंने प्रतिपादित किया कि वर्तमान चैत्यवासी आचार्यों 'यतियों का आचार पूर्णतः शास्त्रविरुद्ध है । शास्त्र प्रमाणों के सम्मुख चैत्यवासी आचार्यगण निरुत्तर हो गये। आचार्य वर्धमान और जिनेश्वर आदि की चारित्रिक उत्कृष्टता, प्रखर तेजस्विता, स्पष्टवादिता आदि को देखकर महाराज दुर्लभराज प्रभावित हो गये और उन्होंने कहा कि 'आपका मार्ग वास्तव में खरतर है, पूर्णतः सच्चा है।' यह शास्त्रार्थ विक्रम संवत् १०६६ से १०७८ के मध्य हआ था । आचार्य वर्धमान की उपस्थिति में शास्त्रार्थ जिनेश्वरसूरि ने किया था, अतः तभी से इस सुविहित परम्परा में खरतर गच्छ का उद्भव हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य जिनेश्वर से उद्भूत आचार-विचार की इस परम्परा को, जहाँ । इस परम्परा के अनुयायी लोग 'सुविहित' नाम प्रदान कर रहे थे, वहाँ उसके लिये एक-दूसरे नामकरण का भी विधान हो रहा था । यह तो स्पष्ट ही है कि तत्कालीन चैत्यवासियों के विपरीत यह एक उग्र, प्रखर और कट्टर सुधारवादी परम्परा थी, जो न केवल चैत्यवासियों से पृथक् थी वरन् उन वसतिवासियों के मार्ग से भी पृथक् थी जो तत्कालीन चैत्यवासी शिथिलता को चुपचाप सहन करते चले आ रहे थे। इसलिए स्वाभाविक था कि यह परम्परा अपनी उग्रता और कट्टरता की विशेषता को लेकर जनता में प्रसिद्ध हो जाती, सम्भवतः इसी आधार पर जनता ने इनको ‘खरतर' कहना प्रारम्भ किया। इतिहास में ऐसे ही उदाहरण अन्यत्र मिलते हैं । ईसाई समाज में 'प्यूरीटन' नाम की उत्पत्ति इसी प्रकार के उग्र सुधारवाद के वातावरण को लेकर हुई और अपने ही देश में 'उदासी सम्प्रदाय' के नामकरण का आधार भी ऐसा ही प्रतीत होता है । इस प्रकार के नामों का जन्म स्वभावतः उसी समय होता है, जब इन नामों की आधारभूत विशेषता सबसे अधिक आकर्षक, नवीन तथा विरोध-प्राप्त होती है। जिनेश्वराचार्य की विचारधारा के लिये इस प्रकार का युग स्पष्टतः उस समय से प्रारम्भ होता है जब वह चैत्यवासियों के दुर्भेद्य गढ़ "अणहिलपुरपत्तन" में अपने प्रभाव को दिखलाते हैं । खरतरगच्छीय परम्परा के अनुसार “खरतर' विरुद जिनेश्वराचार्य को तत्कालीन राजा दुर्लभराज द्वारा दिया गया था। इस बात को लेकर बहुत निराधार विवाद चला है, परन्तु इसमें विवाद के लिये कोई स्थान नहीं है । राजा ने यह विरुद दिया हो अथवा न दिया हो, आचार्य जिनेश्वर की विचारधारा की वह मूलभूत विशेषता जिसके कारण इस विरुद की कल्पना की जा सकती है, जनता के हृदय पर अवश्य ही अपना प्रभाव For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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