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________________ १७२ खण्ड १ | जीवन-ज्योति : व्यक्तित्व दर्शन पूज्यजनों के मात्र इंगित आकार को समझकर तत्क्षण कार्य करने की क्षमता सम्पन्न हैं। आपश्री के जीवन में विनय का सर्वोपरि स्थान है चूँकि विनीत साधक ही सिद्धि के सोपान पर चढ़ सकता है। एक विनय गुण के आ जाने पर अन्य गुण तो उसके अनुगामी बनकर स्वतः आ जाते हैं। आपश्री में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान है। इसीलिए न चाहते हुये भी माता-पिता को इच्छा को प्रधानता देकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया व समय की परिपक्वता व अन्तरायोदय नष्ट होने पर बाल्यकालीन आपकी उस आन्तरिक संयम भावना को साकार रूप देने का सौभाग्य भी मिला। आपश्री के संयमी जीवन को लगभग अर्द्ध शतक पूर्ण होने जा रहा है। इस दीर्घकालीन संयमी जीवन में आपने अपने गुरुजनों की आज्ञा की कभी यत्किचित् भी उपेक्षा नहीं की। पूज्यजनों की आज्ञा के प्रति आप त्रियोग से पूर्णतः समर्पित थीं व आज भी हैं। मुझे याद है कि पालीताना चातुर्मास के पश्चात् गुजरात की प्रायः यात्रा सम्पूर्ण कर एक बार तीर्थाधिराज के दर्शन हेतु पुनः पालीताना आये थे तथा शारीरिक अस्वस्थता के कारण कुछ दिन वहाँ स्थिरता की पश्चात् अत्यधिक गर्मी के कारण द्वितीय चातुर्मास भी वहीं करने की मनःस्थिति बना चुके थे, किन्तु जैसे ही भूतपूर्व प्र. महोदया स्व. श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. को जब ज्ञात हुआ तो उन्होंने बड़ी आत्मीयता से लिखा कि आप पालीताना तो चातुर्मास कर ही चुकी हैं जामनगर वालों की कई वर्षों से विनती है अतः इस बार आप वहीं चातुर्मास करें। शासन प्रभावना का अच्छा लाभ मिलेगा। भयंकर गर्मी थी फिर भी बिना किसी ननुनच के आपश्री ने आदेश स्वीकार कर जामनगर की ओर प्रस्थान कर दिया। मैं देखती ही रह गईं। पूज्याश्री जेठ मास की इतनी भयंकर गर्मी में कैसे विहार करेंगी ? साथ ही यह भी देखा कि पूज्या प्र. श्री के आदेश को मानकर आप कितनी अधिक प्रसन्न थीं। चूँकि आपने अपने जीवन में सदा बड़ों का विनय किया है व उनकी प्रत्येक आज्ञा को हर परिस्थिति में हर सम्भव मानने को प्रतिक्षण प्रतिपल तैयार रही हैं। ऐसे एक नहीं अनेक संस्मरण हैं आपश्री के जीवन के जिन्हें मैंने प्रत्यक्ष देखे हैं । पूज्यजनों के विनय में तो आपश्री ने कभी उपेक्षा की ही नहीं पर छोटों के प्रति या गृहस्थ श्रावक-श्राविकाओं के प्रति भी कभी किसी प्रकार का असद् व्यवहार नहीं किया व अन्य किसी को करते देखतीं तो बड़े ही स्नेहयुक्त शब्दों में आगम की स्मृति दिलाती हुई समझाती हैं-'न साहूणं आसायणाए न साहूणीणं आसायणाए न सावयाणं आसायणाए न सावियाणं आसायणाए। यही कारण है कि संयमी जीवन का अधिकांश समय गुरुवर्याश्री की सेवा में आपश्री ने जयपुर में ही व्यतीत किया व वर्तमान में भी जयपुर संघ के अत्याग्रह से ५ वर्ष से तो 'स्थिरवास' रूप में विराज रही हैं। तथापि आपश्री जयपुर श्री संघ की अट श्रद्धा का केन्द्र बनी हुई हैं। (२) सरलता की प्रतिमूर्ति-प्रभु महावीर ने सरलता को साधना का प्राण कहा है। चाहे वह गृहस्थ साधक हो या संसार-त्यागी। दोनों के लिए सरलता, निर्दम्भता, निष्कपटता आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है । कहा भी है-“सोही उज्जुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्म चिट्ठई । जो ऋजुभूत है, सरल है वही धर्म साधना कर सकता है और सिद्धि के अन्तिम सोपान को भी वही साधक प्राप्त कर सकता है। पूज्यवर्या श्री का नख से शिख तक सम्पूर्ण जीवन सरल निर्दम्भ व निष्कपट है । आपश्री का आन्तरिक व बाह्य जीवन सर्वथा सरल है-वाणी में सरलता, विचारों में सरलता, यहाँ तक कि जीवन के प्रत्येक व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से सरलता परिलक्षित होती है । न कहीं दुराव है, न कहीं छिपाव । आपश्री सदायही कहती हैं कि सरल बने बिना सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती । यथा-भयंकर विषधर को भी बिल में जाने के लिए सरल बनना पड़ता है । वैसे ही साधक को भी मुक्ति में जाने के लिए निष्कपट, पर निर्दम्भ, सीधा, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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