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________________ साहित्य-समीक्षा प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी महाराज का अदभुत-अनुवाद-कौशल -गणी मणिप्रभसागरजी विद्वानों ने शब्द को 'ब्रह्म' की उपमा दी है। 'शब्द' ब्रह्म है, इसका मतलब है, 'शब्द' अनन्त शक्तिसम्पन्न, अनन्त अर्थ और पर्याय वाला एक महत्तत्व है। जिस प्रकार एक छोटे से बीज में विराट वक्ष की अनेक, अगणित पत्तियाँ व असंख्य बीजों की सत्ता छिपी रहती है, उसी प्रकार इस छोटे से 'शब्द' अक्षर में अगणित अर्थों का रहस्य छुपा रहता है। जैनाचार्यों ने सूत्र को 'सत्त' अर्थात् सुप्त कहा है, जिसके भीतर अगणित अर्थ और रहस्य छपे हों, ज्ञान की अनेकानेक किरणें जिसके भीतर सुप्त-गुप्त हों, और जिसे वाचक, व्याख्याता अपनी सम्यक प्रज्ञा से जागृत करता है, उस रहस्यपुञ्ज शब्द को सूत्र या ‘सुत्त' कहा गया है ।। सूत्र का अर्थ समझना कठिन है, इसके लिए शास्त्र का तलस्पर्शीज्ञान तो चाहिए ही, व्याकरण और भाषा-शास्त्र पर अधिकार भी होना चाहिए और साथ ही आगम, परम्परा, इतिहास और दर्शन का भी गम्भीर ज्ञान होना चाहिए। 'शब्द' देश-काल-परिस्थिति के परिवेश में अपना अर्थ बदलता रहता है, अपना रूप-स्वरूप परिवर्तित करता रहता है । यदि हमें उसके इस परिवर्तन की परम्परा और परिवेश का ज्ञान नहीं है तो हम शब्द का सम्यगअर्थबोध नहीं कर सकते । ब्रह्म की भाँति शब्द अनेक रूप, अनेक अर्थ वाला है, अतः व्याख्याता को शब्द समग्र रूप का ज्ञान/परिज्ञान होना आवश्यक है, तभी वह शब्द के रूप में सुप्त अर्थ रूप ज्ञान ज्योति को प्रकाशित कर सकता है। . . भोजन करते समय किसी ने अपने सेवक से कहा-'सैन्धवमानय ! सैन्ध वलाओ!' मूर्ख सेवक ने सिन्धु देश में जन्मा घोड़ा लाकर खड़ा कर दिया, क्योंकि 'सैन्धव' नाम घोड़े का भी है। स्वामी ने कहा-मूर्ख ! अभी तो मैं भोजन करने बैठा हूँ, भोजन में नमक नहीं है, इसलिए सैन्धव नमक लाने को कहा और तूने घोड़ा लाकर खड़ा कर दिया। तो शब्द का अर्थ-बोध करने के लिए देश-काल-परम्परा-दर्शन और मनोभावों का परिज्ञान होना भी आवश्यक है। 'शब्द' ब्रह्म को वही पहचान सकता है, वही व्याख्यात कर सकता है, जिसका अध्ययन और निरीक्षण चतुर्मुखी हो, जो बहुश्र त बहुअधीत हो । अन्यथा शब्द के अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। १. पासुत्तसमं सुत्तं अत्येणाबोहियं न तं जाणे -बृह० भा ३१. ( १५५ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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