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________________ १३८ खण्ड १ | जीवन ज्योति विहार काफी लम्बा हो चुका था और गरुवर्याश्री की उम्र भी लगभग ७६ वर्ष की थी। कुण्डी ग्राम में एक विद्यालय के अन्दर रुके । जिस कक्ष में हम रुके थे उसके अत्यन्त समीप में ही पुस्तकालय था। गुरुवर्याश्री जैसे ही विद्यालय में पधारी, वैसे ही उस पुस्तकालय में चली गईं और प्रोफेसर की अनुमति से पुस्तक ली, और वहीं खड़ी-खड़ी पढ़ने में लीन हो गई। इधर दर्शनाचार्य पू. शशिप्रभाजी म. सा. ने यन्त्र-तत्र देखा । कहीं भी गुरुवर्याश्री नहीं । चिन्ता हो गई, किन्तु किंचित् समयानन्तर जब साध्वी शशिप्रभाश्री म. सा. ने पुस्तकालय में गुरुवर्याश्री को पुस्तक पढ़ते देखा, तब बोली "आप विहार कर पधारी हैं अतः कुछ आराम कर लीजिए, बाद में पुस्तक पढ़ियेगा।" तब "पुस्तक पढ़ना ही हमारा आराम है" गुरुवर्याश्री ने कहा । मैं भी समीप ही खड़ी थी। यह वाक्य सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ कि मेरी उम्र तो अभी इतनी अल्प है फिर भी आते ही आसन बिछाकर सीधे सोती हूँ किन्तु गुरुवर्याश्री को देखो। वास्तव में इस वाक्य ने “कि पुस्तक पढ़ना ही हमारा आराम है” मेरा जीवन भी आंशिक रूप में परिवर्तित कर दिया। इससे अनुभव कर सकते हैं कि गुरुवर्याश्री का जीवन कितना अप्रमत्त है । वास्तव में गुरुवर्याश्री ने “समयं गोयम ! मा पमायए" की गुण गरिमायुक्त उक्ति को चरितार्थ किया है। कृपा से परिपूर्ण आपश्री का वरदहस्त सदा सर्वदा मेरे सिर पर रहे, जिससे मेरे कदम उत्तरोत्तर · · उन्नति की ओर अग्रसर होते रहें और मैं अपने लक्ष्य को शीघ्र प्राप्त कर सकू। इन्हीं शुभ अभ्यर्थनाओं के साथ युग-युग तक करती रहो धरा पर जिनवाणी का विमल उद्योत और बहा दो मम मानस में आध्यात्मिकता का नूतन स्रोत । Cश्री आर. एम. कोठारी, आर. ए. एस. प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी की शिष्या पू. श्रीसम्यग्दर्शनाजी के दर्शन मुझे उनके जोधपुर प्रवास में पू. श्री विद्य त्प्रभाश्रीजी के संग भैरुबाग मन्दिर में हए। साध्वीजी श्री सम्यग्दर्शनाजी को देखा तो पाया कि निरन्तर पठन-पाठन उनका मुख्य व्यसन है तथा उनकी विद्वत्ता, विनम्रता, जनकल्याण की भावना व सदाशयता ने मुझ पर गहरी छाप छोड़ी। उनसे ही जानकारी मिली कि उनकी दो बहिनें भी साध्वी-जीवन बिता रही हैं । जिनकी शिष्या गुणों की खान हो--उनकी गुरुवर्या कैसी होगी ? जानने की जिज्ञासा बढ़ी। मुझे शीघ्र ही उनकी गुरुवर्या पूज्या प्रवर्तिनीजी का जयपुर चातुर्मास में एवं तत्पश्चात् सन् १६८२ में जोधपुर प्रवास में सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके सान्निध्य का लाभ मेरे लिए मंगल विधायक सिद्ध हुआ। पूज्या प्रतिनीजी की छवि में प्रशस्त ललाट, अलौकिक तेज पुज, शान्त स्वरूप, दीर्घ नयन, शरीर में देवभाव का प्रभाव, मुखमण्डल में सर्वजीवों को अभय करने वाली अपूर्व शोभा है। ____ आशीर्वाद देने के लिए उठे आपके दाहिने हाथ में गुरु पर्वत के बायीं ओर से अन्दर की ओर आने वाली रेखा (साइड रिंग), गुरु पर्वत पर क्रास का चिन्ह, पर्वतों पर चार वृत, बुध एवं सूर्य पर्वत को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012028
Book TitleSajjanshreeji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashiprabhashreeji
PublisherJain Shwetambar Khartar Gacch Jaipur
Publication Year1989
Total Pages610
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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