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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
विषम भाव को आत्म-भावरूप चारित्र नहीं कहा है। क्यों कि रागादि भाव बन्ध का कारण है और यह आत्मभावरूप चारित्र संवर-निर्जरा रूप होने से मुक्ति (मोक्ष) का कारण है। इसलिए सराग भाव या विषम भाव जहाँ हो, वहाँ बाह्य आचार या कल्प मर्यादाएं हो सकती हैं, उसे व्यवहार चारित्र भी कहा जा सकता है। व्यवहार चारित्र, कल्प, या बाह्य आचार कभी एक-सा नहीं रहता, वह देश, काल के अनुसार बदलता रहता है, बदलता रहा है। तीर्थंकर अपने देशकालानरूप चतर्विध संघ के बाहा आचार कल्प या व्यवहार चारित्र में परिवर्तन करते हैं।
सकता है तो वह एक दिन नष्ट भी हो सकता है। और जो नष्ट होता है समय-समय पर परिवर्तित होता रहता है, वह शुद्ध आत्म धर्म नहीं होता। तीर्थंकर : आत्मधर्म के संस्थापक नहीं
जैन सिद्धान्त और जैन धर्म के इतिहास से अनभिज्ञ कई लोग कहते हैं - प्रत्येक तीर्थंकर नये आत्मधर्म की स्थापना करते हैं परन्तु ऐसी बात नहीं है। वे तीर्थ की या संघ की स्थापना करते हैं। 'लोगस्स' के पाठ में उनकी स्तुति करते हुए कहा गया है - धम्म तित्थयरे जिणे,१६ धर्म से युक्त तीर्थ की-संघ की स्थापना करने वाले जिन - वीतराग! इसका मतलब यह नहीं है कि वे आत्मधर्म कीवीतराग भाव, समभाव, अहिंसा, क्षमा, सत्य आदि की नये सिरे से स्थापना करते हैं। समता, अहिंसा, सत्य, क्षमा आदि जो आत्मधर्म हैं वे आत्मा के स्वभाव हैं। इसी प्रकार निश्चय दृष्टि से सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र; ये आत्मा के स्वरूप हैं, आत्मा के निजी गुण या स्वभाव हैं। क्या तीर्थंकर सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र को नये सिरे से घड़ कर तैयार करते हैं? नहीं। सम्यग्दर्शन ज्ञान युक्त चारित्र वही है जो भगवान् महावीर से पूर्व के तीर्थंकरों के युग में था। यहाँ चारित्र का अर्थ है-समभाव। मोह-क्षोभविहीन वीतराग भाव आदि। ऐसा नहीं है कि भगवान् ऋषभदेव का वीतरागभाव या समभाव अलग तरह का था और भगवान् महावीर का दूसरी तरह का था। समभाव या वीतरागभाव की साधना में कोई अन्तर नहीं है, न था और न भविष्य में होगा। स्पष्ट है, तीर्थंकर सम्यग्ज्ञान-दर्शन युक्त भाव चारित्र में कोई परिवर्तन नहीं करते। वे युग के अनुरूप बाह्य आचार में, विधि-निषेध के नियमोपनियमों में देशकालानुसार परिवर्तन करते हैं। अतः किसी भी तीर्थंकर के साधु हों उनके समभाव रूप या वीतराग भावरूप चारित्र में एकरूपता थी, है, रहेगी। किसी भी धर्मतीर्थ स्थापक तीर्थंकर ने रागभाव को या
समता-वीतरागता ही आत्मधर्म
यही कारण है कि जहाँ आत्मधर्म किस में है? यह प्रश्न आया, वहाँ समभाव को आत्मा का स्वभाव = परिणतिरूप होने से धर्म=आत्मधर्म कहा है। आचारांग सूत्र में कहा है - आर्यों ! तीर्थंकरों ने समता में धर्म कहा है।२१ जो त्रस और स्थावर सभी प्राणियों पर समभाव रखता है, उसी के जीवन में समता धर्म/आत्मधर्म है । २२ भगवती सूत्र में कहा गया है - आत्मा ही सामायिक है, आत्मा ही संवर है। आत्मा ही वीतराग भाव है, वही समता, संवर और वीतरागता का प्रयोजन है। २३ जो सर्वप्राणियों के प्रति आत्मभूत = आत्मोपम्यभाव से ओतप्रोत है, सभी प्राणियों को अपने समान देखता है, आस्रवों (कर्मबन्ध के कारणों) से दूर रहता है, वह पाप कर्म नहीं करता।२४ जैन संस्कृति समत्व की संस्कृति है। जैन धर्म के तीर्थंकरों, आचार्यों या साधु-साध्वियों ने अपने सम्पर्क में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को सम बने रहने की, समभाव रखने की प्रेरणा दी है। भगवान् महावीर ने आत्म-समत्व पर जोर देते हुए एक सूत्र दिया - ‘एगे आया' । अर्थात् आत्मस्वरूप की दृष्टि से, विश्व की समस्त आत्माएँ एक हैं। स्वरूप की दृष्टि से हमारी और सिद्धों की आत्मा में कोई अन्तर नही है। उन्होंने कहा -- सब प्राणियों के प्रति
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धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग |
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