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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग ० विद्वद्वर्य श्री विनोदमुनि धर्म की राह पर तो चल पड़े, किन्तु समत्वयोग की साधना कहाँ? धर्म-पंथ-सम्प्रदाय के दुराग्रह-हठाग्रह के कारण एकदूसरे को हीन एवं नीचा दिखाने की प्रवृत्ति का परित्याग कहाँ किया? निंदा, कटुता वैमनस्य की वैतरणी का प्रवाह तो निरंतर जारी है। वस्तुतः समत्वयोग के अभाव में धर्म का पथ भी कंटीला है। आज के संदर्भ में समत्वयोग का विश्लेषण कर रहे हैं - विद्वद्वर्य श्री विनोदमुनिजी म.! - संपादक भौतिक विज्ञान : मृग मरीचिका वर्तमान भौतिक विज्ञान के युग में मनुष्य बैलगाड़ी के युग को लांघकर राकेट-युग में प्रविष्ट हो गया है। इसी भौतिक विज्ञान के माध्यम से मनुष्य, जल, स्थल और नभ की तीव्रगति से यात्रा करने में सफल हो गया है। इतना ही नहीं उसने चन्द्रलोक की सफल यात्रा करने के साथ-साथ मंगल आदि नये-नये ग्रहों की शोध करके विश्व को आश्चर्य में डाल दिया है। इन भौतिक उपलब्धियों को मनुष्य ने वरदान समझकर स्वीकार किया। भौतिक विज्ञान के विकास से प्राप्त सुख साधनों को पाकर मनुष्य ने सोचा-समझा था कि इससे पृथ्वी पर बहने वाला दुःख का दरिया सदा के लिए सूख जाएगा, अशान्ति का धधकता हुआं दावानल प्रशान्त हो जाएगा लेकिन वह मृग-मरीचिका के समान ही धोखा देने वाला साबित हुआ। भौतिक विज्ञान पर अध्यात्म का अंकुश न होने के कारण वह वरदान रूप न होकर अभिशाप रूप ही बन गया। सच है - अध्यात्म (आत्मधर्म) से अनुप्राणित तथा नियंत्रित न होने के कारण कोरे भौतिक विज्ञान ने विश्व में विध्वंस का वातावरण ही तैयार किया। आत्म-धर्म के अभाव में मानव क्या है ? आत्म धर्म के अभाव में भौतिक विज्ञान द्वारा प्रदत्त तथाकथित सुख-सुविधा के साधनों, अथवा केवल भौतिक पर-पदार्थों को अपनाकर सुख-शान्ति की कल्पना करना सपने में लड्डू खाने के समान है। आत्म धर्म के अभाव. में कोई भी प्राणी वास्तविक सुखशान्ति का स्पर्श नहीं कर सकता। वह भौतिक पदार्थों को पाने की होड़ में, अहंकार, ममकार, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, आसक्ति आदि विषमताओं से घिरा रहता है। विविध विषमताओं के दुश्चक्र में फंसकर आत्मधर्म विहीन मानव नाना आधि-व्याधि-उपाधियों में पड़ा रहता है। उसका हृदय संकीर्ण, स्वार्थी और दम्भी बन जाता है। निपट स्वार्थी मनुष्य धन वैभव तथा भौतिक सुख-साधनों एवं सुविधाओं को पाने के लिए राक्षस बनकर दूसरों का शोषण व उत्पीड़न करने और परहित का घात करने से भी नहीं चूकता।' यहाँ तक कि वह जिस परिवार, समाज, धर्म सम्प्रदाय, जाति, प्रान्त और राष्ट्र में पला, बढ़ा है, वहाँ भी आत्म धर्म की मर्यादाओं को लांघकर संकीर्ण स्वार्थी बन जाता है। वह केवल स्वकेन्द्रित होकर मनुष्य के रूप में पशुओं जैसा आचरण करने लग जाता है। वह मनुष्यता से गिरकर पशुता की कोटि में आ जाता है, इतना ही नहीं कभीकभी तो मानवता के बदले दानवता का, इन्सानियत के बदले शैतानियत का रूप धारण कर लेता है। वह परिवार, समाज, राष्ट्र के अध्यात्म प्रधान आचार विचार को भी नजरअंदाज कर देता है । फलतः अपने ही निकृष्ट आचरण और व्यवहार से वह स्वयं को पतित बना ही लेता है। दुःख के सांचे में ढाल लेता है, दूसरों को भी पतित और दुःखी बनाने की परम्परा अपने पीछे छोड़ जाता है उन्हीं १५४ धर्मसाधना का मूलाधार : समत्वयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012027
Book TitleSumanmuni Padmamaharshi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadreshkumar Jain
PublisherSumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai
Publication Year1999
Total Pages690
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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